कभी मायावती को प्रधानमंत्री बनाए जाने की बात चलती थी। भारतीय राजनीति में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के दबदबे को देखते हुए लोग कहते थे कि वह प्रधानमंत्री बन सकती हैं। 2007 में अपने दम पर यूपी में सरकार बनाने वाली और चार बार की सीएम रह चुकीं मायावती की 2022 के चुनाव में यह हालत हो जाएगी, शायद इसकी किसी ने कल्पना नहीं की होगी। राजनीति में सबकुछ संभव है। जो आज सफलता की बुलंदियां छू रहा है वह अपने गलत निर्णयों के चलते फर्श पर आ सकता है। बसपा आज अपने अब तक के सबसे खराब दौर में है। यूपी में इस बार चुनाव में वह एक मात्र सीट रसड़ा जीत पाई है। वह नौवे पायदान पर है। यहां तक कि सुभासपा, अपना दल जैसे छोटे दल उससे आगे निकल गए हैं।
मुस्लिम वर्ग का छिटकना, हार की वजह-मायावती
चुनाव नतीजे आने के बाद मायावती ने इस हार के लिए मुस्लिम वोटरों का साथ नहीं मिलना बताया है। साथ ही उन्होंने कहा कि भाजपा ने हिंदुओं वोटरों में भ्रम फैलाया जिसकी वजह से दलित वोट भी बंट गया। चुनाव में हार मिली है तो इसका ठीकरा भी तो कहीं न कहीं फोड़ा जाना है। बसपा सुप्रीमो ने भी यही किया। उन्होंने पार्टी की हार के लिए मुस्लिम समुदाय को जिम्मेदार ठहराया है। चुनाव में बसपा के प्रदर्शन पर अगर गौर करें तो उसे सीटों का नुकसान तो हुआ ही है उसका वोट प्रतिशत भी गिरा है। साल 2017 के विस चुनाव में बसपा को करीब 22 प्रतिशत वोटों के साथ 17 सीटों पर जीत मिली थी लेकिन इस चुनाव में 12.88 फीसदी वोटों के साथ एक सीट मिली है। चुनाव में बसपा को 16 सीटों एवं करीब 10 प्रतिशत मतों का नुकसान उठाना पड़ा है।
हार से कब सबक लेगी कांग्रेस, 5 राज्यों में पराजय की कोई नैतिक जिम्मेदारी भी नहीं ले रहा
दलित वोट में भाजपा की सेंधमारी
जाहिर है कि बसपा का परंपरागत वोट बैंक (दलित) ने इस बार उसका साथ छोड़ा है। दलित वोट बसपा का कोर वोट बैंक रहा है जो चुनावों में उसका साथ नहीं छोड़ता था लेकिन इस बार कहानी कुछ दूसरी हुई है। चुनावी जानकार मानते हैं कि इस बार राशन, मकान, शौचालय, गैस कनेक्शन जैसी कल्याणकारी भाजपा सरकार की योजनाओं से यह वर्ग प्रभावित हुआ और चुनाव में सपा की जगह भाजपा को वोट दिया। बसपा से दलित वोट छिटकने का सीधा फायदा भाजपा को हुआ। चुनाव में बसपा यदि अपना पिछला प्रदर्शन दोहराई होती तो भाजपा की सत्ता में वापसी की राह मुश्किल हो सकती थी और शायद वह 255 सीटों तक नहीं पहुंच पाती।
बसपा का चुनाव प्रचार ठंडा रहा
दरअसल, इस चुनाव में बसपा चुनाव लड़ती हुए नहीं दिखी। बसपा ने 403 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, कुछ सीटों को छोड़ दिया जाए तो उसके प्रत्याशियों में जीत के जुनून, जज्बे एवं उत्साह की भयंकर कमी दिखी। चुनाव प्रचार में खुद मायावती की सक्रियता न के बराबर थी। इतने बड़े प्रदेश में उन्होंने केवल 18 सभाएं कीं। उन्होंने रैलियों से दूर बनाए रखी। कहीं न कहीं वह इस बार अति आत्मविश्वास एवं मुगालते का शिकार हुई हैं। उन्हें लगता था कि हमेशा की तरह उनके साथ रहने वाला दलित समुदाय इस बार भी उनके साथ रहेगा और 20-22 प्रतिशत वोटों के साथ कुछ सीटें उनके खाते में आ जाएंगी। बसपा की स्थिति ऐसी हो गई है कि वह अपने दम पर राज्यसभा में एक भी सीट नहीं भेज पाएगी।
'डबल इंजन' से टूटा 37 साल पुराना रिकॉर्ड, यूपी में परंपरागत राजनीति नहीं चलेगी 'भैया'
बसपा को बदलना होगा
बसपा की इस हार के लिए कई वाजिब वजहें हैं। वह सड़क पर उतरकर मुद्दों की लड़ाई लड़ती नहीं दिखी। बड़ी घटनाओं पर केवल बयान जारी कर देने भर से आप राजनीति नहीं कर सकते। बसपा को यह समझना होगा कि परंपरागत राजनीति का दौर बीत गया है। चुनाव प्रचार के आधुनिक तौर-तरीकों एवं तकनीक का इस्तेमाल नहीं करने पर आप पिछड़ जाएंगे। दलों को धरातल पर काम करना होगा। जनता के साथ निरंतर संवाद और उनसे जुड़ने होगा। नए दौर में बसपा अपने नेताओं की नई पीढ़ी तैयार नहीं कर पाई। पुराने नामी चेहरे उसका साथ कबका छोड़कर जा चुके हैं। राजनीति में उसे अगर वापसी करनी है तो उसे अपने चाल-चरित्र एवं चेहरे में बदलाव करना होगा।