महात्मा गांधी जी का भारतबोध शुद्ध व जाग्रत था। भारत का लोक जीवन संकट या दुविधा के समय जिन ग्रथों के घटनाक्रमों में समाधान खोजता है, गांधी जी ने उस रामायण व महाभारत को अपनी आत्मा का इतिहास कहा है। उन्होंने जिन मूल्यों को अपनी ऊर्जा के रूप में अपनाया वे इस देश में लाखों वर्षों से अभ्यासित हैं। जन-जन के अवलंब श्रीरामचंद्र ही उनके अवलंब हैं। लोक आस्था में ही उनकी आस्था है। जन-जन की कामना ही उनकी सुशासन अवधारणा ‘रामराज्य’ है। गांधी जी ने विनीत साधक के तौर पर समस्त व्याधियों के निदान के रूप में रामनाम को सिद्ध किया था। वो राम जो शीलवान हैं, धैर्यवान हैं, मर्यादापुरुषोत्तम हैं और वीर भी हैं। वही राम ‘जन-मन’ के हैं और वही राम ‘जन-जन’ के भी 'वही लोकव्यापी राम गांधी के राम हैं।‘
पुस्तक ‘गांधी के राम’ में रोचकता से साथ इसे उकेरा गया है कि कैसे महात्मा जी को राम-नाम का बीज राम की लोक व्याप्ति के स्वाभाविक आधान से मिला था, जिसे उन्होंने अपने अनुभव व अभ्यास से सिद्ध कर ‘बोध’ और फिर ‘शिखरतम प्राप्ति’ तक पहुंचाया। और राम-नाम उनके ‘डर की दवा’ से आगे बढ़कर निडरता का पोषक बन गया, राम उनके राष्ट्र-सेवा उत्प्रेरक बन गये। महात्मा जी का राम-बोध आत्मशुद्धि, नीति रक्षा व ब्रह्मचर्य रक्षा का अमर उपाय, प्रयत्नों को सहारा पहुंचाने, ईश्वर से सीधे-सीधे कृपा पाने, अनासक्ति व समता को पाने और डर व विकार के मोचन का उपाय हो गया।
भारत की संस्कृति में भक्त और भक्ति की जो एकात्म सत्ता है उस आधार पर राममय गांधी कहूं या गांधीमय राम दोनों की शक्ति इतनी विशाल है कि इसे तोड़ पाने में बड़ी-बड़ी शक्तियां विफल हो जाएं। लेकिन एक तरीका था कि दोनों को अलग कर दिया जाय, इसके लिए राम को सांप्रदायिकता का चोला पहनाया गया। उसके बाद गांधी के 'रघुपति राघव राजा राम' को हल्का करके 'ईश्वर अल्लाह तेरो नाम' को बोल्ड कर दिया गया। बिना ये सोचे समझे कि मुखड़े की पहली अर्धाली के बिना अंतरों को कितना भी सजा लिया जाय गीत कभी मुकम्मल नहीं हो सकता? लेकिन नहीं, गांधी को रामहीन करके राम को भी ‘गांधीहीन’ कर दिया गया।
एक धड़े ने रामहीन गांधी को पकड़ लिया और दूसरे धड़े ने गांधीहीन राम को। उसके बाद दोनों अपनी-अपनी राजनीति को चमकाने में लग गये। इस दुर्घटना का खामियाजा ये हुआ कि न तो गांधी ही जन-जन के रहे और न राम ही। दिन भर गांधीवादियों के हिंसक कारनामे देखिए या फिर रामनामियों के अमर्यादित छल-प्रपंच---एक खेल मुझे हमेशा याद आता है 'बुल फाइटिंग'। जिसमें आदमी को सांड से लड़ाया जाता है। सांड वैसे तो आदमी से लड़ेगा नहीं इसलिए पहले उसे लाल कपड़ा दिखाकर भड़काया जाता है।
प्रस्तुत पुस्तक 'गांधी के राम' में डॉ. अरुण प्रकाश ने दोनों को बेहतर ढंग से समझने और समझाने का प्रयास किया है जोकि निश्चित तौर पर पाठकीय आग्रहों के अनुकूल है। पुस्तक में शब्द प्रयोग काफी सजगता से किये गये हैं ताकि मूल भाव का सम्प्रेषण सटीकता से हो सके, इसी के साथ गांधी जी के वचनों को स-संदर्भ प्रस्तुत करने से पुस्तक की प्रमाणिकता सिद्ध है। लेखक ने गांधी जी के व्यक्तित्व को लेकर प्रचलित विमर्श से इतर एक नई दृष्टि प्रस्तुत की है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए और गांधी जी के व्यक्तित्व को बड़े फलक पर देखने का लेखकीय आग्रह का अनुगमन करना चाहिए।