- स्पेशल फ्रंटियर फोर्स की कार्रवाई से चीन घबड़ाया
- पैंगोंग के दक्षिणी इलाके पर चीन करता है दावा लेकिन सबूत नहीं, लेक के जरिए कब्जा की कोशिश लेकिन एसफएफ ने कर दिया नाकाम
- 1962 की लड़ाई के बाद स्पेशल फ्रंटियर फोर्स का किया गया था गठन
नई दिल्ली। चीन और भारत के बीच चुशूल में सैव्य स्तर के बीच वार्ता हो रही है। लेकिन चीन परेशान है। दरअसल चीन को यह उम्मीद नहीं थी कि पैंगोंग लेक के दक्षिणी सिरे पर स्ट्रैटिजिक हाइट पर भारत कब्जा कर लेगा। वैसे तो यह इलाका एलएसी के दक्षिणी इलाके में भारतीय साइड की तरफ से है लेकिन चीन पूरे इलाके को विवादित मानता है। स्पेशल फोर्स के जवाव ऊंची पहाड़ियों पर चढ़ गए और चीन की सेना देखती रह गई। उसके बाद से चीन का सरकारी मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स नरमी गरमी के साथ बात कर रहा है तो भारत में चीन की एंबेसी ने कड़ा प्रतिवाद किया है।
1962 के बाद एसएफएफ का गठन
1962 में स्पेशल फोर्स के अस्तित्व में आने के बाद इस यूनिट को कई ऑपरेशंस की जिम्मेदारी दी गई थी। 1971 की लड़ाई में चटगांव के पहाड़ियों को सुरक्षित करने की जिम्मेदारी दी गई जिसे SFF ने शानदार तरीके से निभाया। 1984 में ऑपरेशन ब्लूस्टार में भी इस यूनिट के जांबाज शामिल थे और उन्होंने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर को खाली कराया गया। भारत ने 'ऑपरेशन मेघदूत' लॉन्च करने का फैसला किया तो भी एसएफएफ ने अपनी जिम्मेदारी को अंजाम दिया। 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान भी SFF के कमांडोज को इस्तेमाल किया गया था।
स्पेशल फोर्स से जुड़ी खास बातें
1962 की जंग के बाद, इंटेजिलेंस ब्यूरो ने एक कमांडो यूनिट के गठन की मांग की।
दरअसल इसके पीछे मकसद यह था कि चीनी सीमा को पार करके खुफिया ऑपरेशंस को अंजाम दिया जा सके।
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने यूनिट के गठन के आदेश दिया।
तिब्बती लड़ाकों को बहुतायत से इसमें शामिल किया गया।
इस फोर्स की शुरुआत 5,000 जवानों से की गई और ट्रेनिंग के लिए चकराता में नया ट्रेनिंग सेंटर बनाया गया।
पहाड़ों पर चढ़ने और गुरिल्ला युद्ध के गुर सीखे।
इन कमांडोज की ट्रेनिंग में R&AW के अलावा अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए का भी अहम रोल था।
एसएफएप को 'इस्टैब्लिशमेंट 22' भी कहते हैं। अब इसकी कमान R&AW के हाथ में है।
सुजान सिंह थे पहले एसएफएफ के पहले आईजी
स्पेशल फ्रंटियर फोर्स के पहले आईजी मेजर जनरल सुजान सिंह थे। दूसरे विश्व युद्ध के समय वो 22 माउंटेन रेजिमेंट के कमांडर थे। उन्हें मिलिट्री क्रॉस से सम्मानित किया गया था और ब्रिटिश फौज में अच्छा-खासा कद था। यह फोर्स इतनी खुफिया तरीके से काम करती है कि सेना को भी इसके मूवमेंट की भनक नहीं होती। यह सुरक्षा महानिदेशालय के जरिए सीधे प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करती है। सबसे खास बात है जान की बाजी लगा देने वाले इन जवानों के बारे में सार्वजनिक तौर पर जानकारी नहीं दी जा सकती है।