रांची: भारत के लिए टेस्ट क्रिकेट खेलने वाले 296वें क्रिकेटर बने शहबाज नदीम ने बहुत संघर्ष टीम इंडिया की जर्सी पहनने के लिए किया है। 110 प्रथमश्रेणी मैच और 400 से ज्यादा विकेट लेने के बाद उनके जीवन में ये पल आया। उन्होंने रांची टेस्ट के तीसरे दिन टेम्बा बवूमा के रूप में अपना पहला टेस्ट विकेट झटका। ऐसे में तीसरे दिन का खेल खत्म होने के बाद शाहबाज ने स्टार स्पोर्ट्स से बात करते हुए अपने संघर्ष के बारे में बताया। जानिए शाहबाज के संघर्ष की कहानी उन्ही की जुबानी।
कोलकाता में मिली टीम में चयन की खबर
'शहबाज नदीम को जब भारतीय टेस्ट टीम में शामिल होने की खबर आई तब मैं कोलकाता में अपने परिवार के साथ था। और उस वक्त मस्जिद में नमाज पढ़ रहा था। जब नमाज खत्म हुई तो मैंने फोन अटेंड किया। पहले उन्होंने मुझसे कहा कि तुम्हें टीम में कुलदीप के बैकअप के रूप में शामिल किया गया है।
कार से तय किया कोलकाता से रांची का सफर
आप 15 साल से जिसके लिए क्रिकेट खेल रहे हो उसके लिए कोई रात में 3 बजे भी अगर आपको बुलाएगा तो आप उठके आ जाओगे। तो मैंने कहा कि मैं आ सकता हूं। इसके बाद मैंने फ्लाइट देखा तो कोई भी फ्लाइट रांची के लिए उपलब्ध नहीं थी। तो मैंने कार से कोलकाता से रांची का 450 किमी लंबा सफर तय करके रात तकरीबन 11.30 बजे रांची पहुंचा। और सुबह 8.30 बजे पता चल गया कि मैं डेब्यू करने जा रहा हूं।'
रवि शास्त्री और विराट ने कही ये बात
कैप मिली तब रवि शास्त्री ने कहा कि तुम्हें बहुत मेहनत के बाद कैप मिली है। बहुत कम लोग होते हैं जो इतने दिन मेहनत करते हैं उसके बाद उन्हें ये मौका मिलता है। उन्होंने मेरा बहुत हौसला बढ़ाया। विराट ने भी मेरा हौसला बढ़ाया। हम दोनों अंडर 19 में एक साथ खेले हैं फिर एक साथ अंडर 19 में भारत का प्रतिनिधित्व किया। जो हमारे साथ अंडर 19 खेला था वो अब सीनियर टीम में खेला था। जब कैप्टन और कोच आपको इतना इनकरेज करते हैं तो एक खिलाड़ी के रूप में आप खुद प्रोत्साहित होते हैं।
परिवार से मिलती है प्रेरणा
मेरा जो भी मोटीवेशन मेरा परिवार है। मेरे माता पिता ने मेरे लिए बहुत कुछ किया है। मैं जब भी मैच खेलकर वापस आता था तो लगता था कि उनके लिए कुछ करना है।
15 साल में किया था रणजी डेब्यू, समय के साथ किया बदलाव
जब मैं अंडर 19 क्रिकेट खेल रहा था तब थोड़ी तेज गेंद डालता था। मैं जब 15 साल का था तब रणजी खेलने का मौका मिला। 5 साल खेलने के बाद देखा कि तब हम ग्रीन विकेटों पर खेलते थे। तो वहां तेज फेंककर विकेट नहीं मिलती थी। क्योंकि हमारी झारखंड की टीम फॉस्ट बॉलर्स ओरिएंटेड थी। तो उसके बाद मुझे गेंदबाजी में बदलाव करना पड़ा कि यदि मुझे विकेट लेने हैं वो मुझे गेंद को फ्लाइट कराने पर ही मिल सकती है। तो वहां से मैंने बदलाव किया। क्योंकि कम उम्र में डेब्यू करने की वजह से सीखने और समझने में देरी लगी।
पिता का था सपना देश का करूं प्रतिनिधित्व
मैं 2010-12 के बाद लगा कि मैं नहीं खेल पाउंगा। उसके एक दो सीजन बाद जब मैंने देखा कि बतौर गेंदबाज मेरे अंदर सुधार आया है तो उसके बाद मुझे मौका नहीं मिल रहा था तो मैं अपने डैड से बोलता था कि मैं एक दिन जरूर भारत के लिए खेलूंगा। उनको मेरे ऊपर ज्यादा विश्वास था। उन्होंने मेरे लिए घर पर पिच बनवाई थी रात में खेलने के लिए घर पर ही फ्लड लाइट लगवाई थी ताकि मैं रात में भी अभ्यास कर सकूं।
पिता ने बेटे के लिए बनाया अपना क्लब
मुझे अब तक याद है कि एक जूनियर दौर में धनबाद के एक बी डिवीजन क्लब में मैं और मेरा भाई दोनों खेलने गए। हम दोनों अच्छा खेलते थे कि उन्होंने हमें मैच नहीं खिलाया। जब उन्होंने हमें नहीं खिलाया तो पिता ने अपना एक क्लब बनाया और कहा कि मेरे बेटे को मेरे क्लब में तो कोई ड्रॉप नहीं कर सकता। तो उन्होंने बहुत कुछ किया। इसलिए मैं ये सोचता था कि यदि मैं हतोत्साहित हुआ तो मेरे से ज्यादा वो हो जाएंगे। क्योंकि वो मेरे बारे में ज्यादा सोचते थे। 20 दिन पहले भी मैंने उनसे कहा था कि चाहे कुछ भी हो जाए आपका बेटा भारत के लिए खेलकर रहेगा और ये मैं उनसे पांच साल से कह रहा हूं कि जब भी मेरा रिटायरमेंट आएगा उससे पहले आपका बेटा देश के लिए क्रिकेट जरूर खेलेगा।
धोनी ने दी ये अहम सलाह
जब भी माही भाई मिलते हैं तो वो ये नहीं बताते थे कि तुम्हें क्या सीखना चाहिए। वो ये बताते थे कि अपनी गेंदबाजी में तुम क्या एडऑन कर सकते हो। तुम्हारी गेंदबाजी की क्या स्ट्रेंथ है उस पर ध्यान दो और काम करो। ज्यादा नया मत सीखो जो है उसी में सुधार करो। नया सीखने के चक्कर में जो है वो भी चला जाएगा। मुझे लगता है उन्होंने मुझे ये सबसे अच्छी चीज मुझे बताई।
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