Uttar Pradesh Assembly : सियासत की बात उत्तर प्रदेश की राजनीति के बिना अधूरी है। देश के सबसे बड़े प्रदेश के चुनावी परिदृश्य में जिस दल का कद बड़ा होता है राष्ट्रीय राजनीति में उसकी दावेदारी भी उतनी बड़ी होती है। यूपी शुरू से ही देश की राजनीति का दशा और दिशा तय करता आया है। प्रदेश का चुनाव हो या लोकसभा का, दोनों चुनावों में यहां की सियासी गरमी देश भर में महसूस की जाती रही है। राज्य में विधानसभा चुनाव 2022 के लिए रणभेरी बज चुकी है। चुनावी महारथी मैदान में हैं। विधानसभा की 403 सीटों के लिए जोर-आजमाइश चल रही है लेकिन क्या आपको पता है कि सूबे में जब पहला विस चुनाव हुआ था तो यहां की विधानसभा का आकार क्या था और यहां पहली सरकार किस पार्टी की बनी। पहले चुनाव में कौन-कौन से राजनीतिक दलों ने हिस्सा लिया था। यहां हम आपको यूपी के पहले विधानसभा चुनाव से जुड़े कुछ रोचक तथ्यों एवं सियासी समीकरणों के बारे में बताएंगे।
1951 के चुनाव में 14 दल शामिल हुए
यूपी में पहला विधानसभा चुनाव 1951 में हुआ था। इस चुनाव में कुल 14 पार्टियां शामिल हुई थीं जिनमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, किसान मजदूर प्रजा पार्टी, भारतीय जनसंघ, अखिल भारतीय राम राज्य परिषद, अखिल भारतीय हिंदू महासभा, उत्तर प्रदेश प्रजा पार्टी, उत्तर प्रदेश कांतिकारी समाजवादी पार्टी, रिवॉल्यूशनरी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया सहित अन्य दल थे। बाद में इनमें से ज्यादातर पार्टियों का अस्तित्व समाप्त हो गया। कुछ ने अन्य दलों में अपना विलय कर लिया। यूपी में पहली बार 430 सीटों के लिए चुनाव हुआ। इसमें एक सीट एंग्लो-इंडियन के लिए आरक्षित थी। पहले चुनाव में कांग्रेस को बंपर जीत मिली। उसने 429 सीटों पर चुनाव लड़ा और 388 सीटों पर उसे विजय मिली। कांग्रेस के गोविंद वल्लभ पंत सूबे के पहले मुख्यमंत्री बने।
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388 सीट जीतने वाली कांग्रेस को 47.93% वोट मिले
यूपी के पहले विस चुनाव में 1006 निर्दलीय उम्मीदवार भी चुनाव लड़े जिनमें से 15 विजयी हुए। 1951 चुनाव में राज्य में कुल मतदाता 4,40,89,646 थे। पहले चुनाव में 1,67,58,619 मतदाताओं ने वोट डाला और मतदान प्रतिशत 38.01 प्रतिशत रहा। चुनाव में 388 सीटों पर प्रचंड जीत हासिल करने वाली कांग्रेस पार्टी को 47.93 प्रतिशत वोट मिले। इस चुनाव में दूसरे स्थान पर रहने वाली सोशलिस्ट पार्टी को 20 सीटें मिलीं और उसे 12.03 फीसदी वोट हासिल हुए। पहले विधानसभा चुनाव की एक दिलचस्प बात यह भी थी कि 249 सीटों से एक विधायक, जबकि 83 सीटों से 2 विधायक चुने गए थे। इन विधानसभा क्षेत्रों को डबल मेंबर कॉन्स्टिचुएंसी के रूप में जाना जाता था।
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लोकबंधु राजनारायण बने विपक्ष के नेता
इन चुनाव में मात्र 20 सीटें पाने वाली सोशलिस्ट पार्टी के नेता लोकबंधु राजनारायण को विपक्ष का नेता चुना गया। उन्होंने 1955 तक यह जिम्मेदारी निभाई। इसके बाद लगातार तीन चुनाव तक सूबे की राजनीति में कांग्रेस का दबदबा रहा और उसकी सरकारें विपक्ष की बड़ी चुनौती के बिना बनती रहीं। कांग्रेस की पहली तीन सरकारों ने आसानी से अपना कार्यकाल पूरा किया लेकिन इसके बाद सूबे की सियासत में विपक्ष की भूमिका मजबूत होती गई और कांग्रेस के लिए चुनावी लड़ाई कठिन होती गई। 1967 के विस चुनाव में कांग्रेस किसी तरह बहुमत के आंकड़े तक पहुंच पाई। लेकिन यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। एक साल के भीतर यहां राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा।