नई दिल्ली: कहां तो तीन कृषि कानून (Farm Law) और चुनावों को देखते हुए पंजाब (Punjab Election) में 20 साल पुरानी दोस्ती टूट गई (भाजपा और अकाली दल का साथ छूट गया)। सभी राजनीतिक दलों में किसानों का हमदर्द साबित करने की होड़ थी। और माहौल ऐसा था कि जिसने किसानों को साध लिया, वह पंजाब की कुर्सी पर काबिज हो जाएगा। लेकिन जब महज वोटिंग में 2 दिन बचे हैं, तीन कृषि कानून और किसान आंदोलन की चर्चा भी नागवार लग रही है। और सारा फोकस भैया (Bhaiya Politics), खालिस्तान और फ्री स्कीम के जरिए सत्ता हासिल करने पर चला गया है।
पश्चिमी यूपी जैसी नहीं हवा, अब दूसरे मुद्दे हावी
ऐसा लग रहा था कि पंजाब चुनाव में सबसे ज्यादा किसानों का मुद्दा ही हावी रहेगा। लेकिन वोटिंग आते-आते वह मुद्दा कहीं दब गया है। और वहां पर यूपी-बिहार से आने वाले श्रमिक को लेकर मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के बाद उठा भैया मुद्दा, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को लेकर कुमार विश्वास का दिया गया सनसनी खेज बयान और खालिस्तान का मुद्दा, बेअदबी मामला और वोटरों को लुभाने के लिए सभी राजनीतिक दलों द्वारा फ्री स्कीम के वादे छा गए हैं।
अहम बात यह है कि जिस तरह से किसान आंदोलन का असर पश्चिमी यूपी के चुनावों में दिखा है। वैसा असर पंजाब में नहीं दिख रहा है। यूपी के एक किसान नेता कहते हैं कि इसकी वजह यह है कि पश्चिमी यूपी में किसानों की पहले से एक मजबूत पार्टी राष्ट्रीय लोक दल है। जिसके पास न केवल चुनाव लड़ने का संगठन है। बल्कि चुनाव जीतने का भी अनुभव है। इसकी वजह से किसानों को अलग से पार्टी की जरूरत नहीं पड़ी और दूसरा समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन हुआ। जिसका फायदा मिलता दिख रहा है। लेकिन पंजाब में ऐसा नहीं सका, इसलिए किसान आंदोलन का असर नहीं दिख रहा है।
380 दिन चला किसान आंदोलन
केंद्र सरकार द्वारा साल 2020 में लाए गए तीन कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन की शुरूआत पंजाब से ही हुई थी। पहले किसानों ने यह आंदोलन पंजाब में शुरु किया, उसके बाद वह दिल्ली पहुंचा। 26 जनवरी 2021 को लाल किले पर हुए उपद्रव के पहले तक किसान आंदोलन की कमान पंजाब के किसान नेताओं के हाथ में रही थी। देश भर के किसान संगठनों को एक जुट करने के लिए, 32 किसान संगठनों को संयुक्त किसान मोर्चा बनाया गया। इस दौरान किसान नेताओं का दावा है कि करीब 700 किसानों की दिल्ली के अलग-अलग बार्डर और दूसरे जगह चल रहे आंदोलन की मौत हुई। लेकिन जब नवंबर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कृषि कानूनों को वापस लेने का फैसला किया तो संयुक्त किसान मोर्चा के नेता बलवीर सिंह राजेवाल चुनावी मैदान में उतर गए। और उनके साथ 22 किसान संगठनों ने उन्हें मुख्यमंत्री का चेहरा बनाकर संयुक्त समाज मोर्चा बनाया। और सभी 117 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया।
चुनाव में किसान संगठनों में उठे मतभेद
लेकिन जो किसान पंजाब की 117 में से 77 सीटों पर चुनावी हवा बदलने की ताकत रखत हैं, वह जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आए, आपस में ही बिखरने लगे। और टिकट वितरण में नाराज किसानों ने संयुक्त समाज मोर्चा से अलग होकर 'सांझा पंजाब मोर्चा' बना लिया है और वह 40 सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा कर रहे हैं। इस बीच आम आदमी पार्टी के साथ भी संयुक्त समाज मोर्चा के गठबंधन की भी बात चली लेकिन वह भी परवान नहीं चढ़ पाई और अब किसान वोट बंटा हुआ नजर आ रहा है।
राजनीति दलों के मुकाबले कमजोर
पंजाब की चुनावी राजनीति पर नजर रखने वाले एक सूत्र का कहना है देखिए जब तक किसान राजनीति में नहीं थे, तब तक पंजाब में भाजपा को छोड़ सभी राजनीतिक दलों को उनका समर्थन प्राप्त था। ऐसे में उन्हें आंदोलन के लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जरूरी मदद मिलती रही। लेकिन जब वह चुनावी मैदान में उतर गए तो राजनीति दल ही उनके प्रतिद्वंदी बन गए। जिसका सीधा सा मतलब है कि अब कोई राजनीतिक दल संसाधन आदि से उनकी मदद नहीं करेगा। और राजनीतिक दलों ने भी किसान मुद्दे की जगह दूसरे एजेंडे के जरिए किसान वोटर को लुभाने की कोशिश शुरू कर दी है। इसका असर यह हुआ कि चुनावी लड़ाई में किसान नेता कमजोर पड़ते दिख रहे हैं। उनके पास न तो कार्यकर्ताओं का मजबूत संगठन है और न ही उतने संसाधन कि वह दूसरे राजनीतिक दलों का मुकाबला कर सकें।