राजनीतिक नक्शे पर पंजाब भले ही एक राज्य नजर आता हो लेकिन इसके अंदर तीन अलग अलग सूबे हैं। ये सूबे भूगोलिक और सांस्कृतिक लिहाज से जाने जाते हैं। इनमें पहला है माझा, दूसरा है दोआबा और तीसरा है मालवा। राजनीतिक लिहाज से मालवा हमेशा से मजबूत रहा है। 117 विधानसभा सीटों वाले पंजाब में सबसे ज्यादा 69 सीटें मालवा में हैं। इसके बाद माझा में 25 सीटें और दोआबा में 23 सीटें। लेकिन दोआबा से बहने वाली बयार पंजाब के बाकी हलकों में सियासत तय करने का माद्दा रखती है।
दोआबा में चुनावी सरगर्मी
दोआबा में ही पड़ने वाले बड़े जिले जालंधर में घुसते ही चुनावी सरगर्मी नजर आने लगती है। घरों की छत पर पार्टियों के झंडे लगे हुए हैं, ई रिक्शा और ऑटो रिक्शा में लगे भोंपू सीएम चरणजीत सिंह चन्नी और आम आदमी पार्टी के कैंपेन सॉन्ग बजाते हुए घूम रहे हैं। दोआबा की राजनीति पंजाब के सियासत पर कैसे असर डालती है ये जान लीजिए।
पंजाब में दलित समाज(फीसद में) की आबादी सबसे अधिक
दलितों की जनसंख्या के लिहाज से पंजाब देश का सबसे बड़ा राज्य है। पंजाब में दलितों की जनसंख्या 32 फीसदी से ज्यादा है। इसमें भी कई अलग-अलग समुदाय हैं। रविदासिया, रामदासिया जैसे अन्य कई ऐसे समुदाय हैं जो दलितों की राजनीति पर प्रभाव रखते हैं। पंजाब के बाकी दो प्रांतों के मुकाबले दोआबा में दलितों की संख्या सबसे ज्यादा है। दोआबा की 23 विधानसभा सीटों में से 19 पर दलित वोट सीधा असर रखते हैं लेकिन जानकारों का कहना है कि सभी 23 सीटों पर दलित वोट अपना प्रभाव रखते हैं। दलितों का सबसे बड़ा सूबा होने के नाते दोआबा से निकलने वाला संदेश बाकी पंजाब के दलितों तक भी पहुंचता है। इसकी खास वजह है दोआबा के इलाके में मौजूद डेरे और इसमें से डेरा सचखंड बल्लां।
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क्या डेरा करता है राजनीति?
जालंधर में ही बल्लां गांव है जहां पर गुरु रविदास का डेरा 'सचखंड बल्लां' स्थित है। इस डेरे को रविदासिया समुदाय का मक्का भी माना जाता है। पंजाब और हरियाणा की राजनीति पर पैनी नजर रखने वालों की मानें तो इन दो राज्यों के चुनावों में डेरों का खासा प्रभाव है। पंजाब में वैसे तो छोटे बड़े मिलाकर हजारों की संख्या में डेरे हैं लेकिन 6 प्रमुख डेरों में सचखंड बल्लां ऐसा डेरा है जिसके अनुयायी सबसे ज्यादा हैं और पूरे पंजाब में फैले हुए हैं। जिस 32 फीसदी दलित की बात हमने शुरू में की है उसमें सबसे बड़ा हिस्सा है रविदासिया दलितों का। सिर्फ दोआबा के अंदर डेरा सचखंड बल्लां के 12 लाख से ज्यादा अनुयायी हैं और पंजाब के बाकी इलाकों में इनकी संख्या 20 लाख के करीब मानी जाती है। यही नहीं दोआबा ही पंजाब का वो सूबा भी है जहां से विदेश जाने वालों की तादाद बाकी इलाकों से ज्यादा है। इसी कारण इस इलाके को NRI बेल्ट भी कहा जाता है। जालंधर में ही एक खास गुरुद्वारा भी है जिसे हवाई जहाज वाला गुरुद्वारा कहा जाता है। यहां पर लोग प्लास्टिक के हवाई जहाज चढ़ाकर वीजा लगने की मन्नत मानते हैं। ऐसे में रविदासिया समुदाय के लोग विदेशों में भी खूब फैले हुए हैं।
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डेरा सचखंड बल्लां का सियासी महत्व
डेरा सचखंड बल्लां की बात करें तो इसकी सियासी महत्ता इस बात से समझी जा सकती है कि चुनावों के आते ही यहां पर हर पार्टी के बड़े से बड़े नेता मत्था टेकने आते हैं। हालांकि डेरे से जुड़े लोगों का साफ कहना है कि राजनीति से उनका कोई लेना देना नहीं है। हालांकि पंजाब की राजनीति को कवर करने वाले पत्रकारों की माने तो ऐसा है नहीं। वोटिंग से एक या दो दिन पहले डेरों से अपने अनुयायियों के लिए संदेश आ जाता हैं।
पंजाब के मुख्यमंत्री चन्नी ने डेरा सचखंड बल्लां को लेकर कई बड़ी घोषणाएं भी की हैं। 50 करोड़ की लागत से रिसर्च सेंटर और 101 एकड़ जमीन का वादा भी चन्नी ने डेरा सचखंड बल्लां से किया है। डेरा सचखंड बल्लां पर हाल के दिनों में हाजिरी लगाने वालों में सीएम चरणजीत सिंह चन्नी, नवजोत सिंह सिद्धू, अरविंद केजरीवाल, हरसिमरत कौर बादल जैसे नेता शामिल हैं। हालांकि डेरे का रुख क्या है ये जब मौके पर जाकर पता करने की कोशिश हुई तो यहां आए ज्यादातर लोग कांग्रेस के समर्थन में नजर आए। होशियारपुर, फगवाड़ा, कपुरथला से आए लोग भी सीएम चन्नी के समर्थन में नजर आए। कुछ लोग तो ये भी कहते नजर आए कि कैंडिडेट भले ही कोई जमींदार हो या कोई भी हो वोट तो चन्नी को ही देंगे।
इसके अलावा आपको ये भी बता दें कि पहले पंजाब में चुनाव 14 फरवरी को होने थे लेकिन 16 फरवरी को पड़ने वाली रविदास जयंति के कारण चुनावों को भी टाला गया। ऐसा राजनीतिक दलों ने चुनाव आयोग से कहा था क्योंकि इस दौरान रविदासिया दलित वाराणसी का रुख करते हैं और डेरे पर भी कम ही भीड़ लगती है।2017 विधानसभा चुनावों की बात करें तो कांग्रेस को 23 में 15 सीटों पर जीत मिली थी। जैसा लोगों का डेरे पर और बाकी के दोआबा में रुख उस हिसाब से ये कहना बड़ी बात नहीं होगी कि दोआबा में कांग्रेस बड़ी वापसी करने जा रही है।
बीएसपी की खिसक रही है जमीन
दोआबा के ही इलाके से कभी कांशीराम ने बीएसपी आंदोलन की शुरुआत की थी। कांशीराम खुद रामदासिया दलित थे। बीएसपी ने अपने शुरुआती दिनों में पंजाब में अच्छी पकड़ बनाई थी। आज भी इसके समर्थक दोआबा में नजर आते हैं लेकिन मायावती के राजनीतिक रूप से एक्टिव न होने की शिकायत भी करते हैं। दलितों की बस्ती में एक बात ये निकलकर आती है कि वो बीएसपी से बैर नहीं रखते लेकिन मायावती के सक्रिय न होने के कारण वो बीएसपी का साथ नहीं दे रहे हैं। साथ ही कांग्रेस ने सीएम चन्नी को ही अपना अगला सीएम चेहरा घोषित कर दिया है जिस कारण अब दलित वोट कांग्रेस की तरफ एकमुश्त शिफ्ट हो सकता है।