नई दिल्ली: उनके पिता मौसम विज्ञानी कहलाते थे और राजनीति पर ऐसी पकड़ थी कि 1996 से केंद्र में चाहे किसी की भी सरकार रही हो राम विलास पासवान केंद्रीय मंत्री जरूर रहे। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद, उनकी पार्टी लोकजन शक्ति पार्टी दो धड़ों में बंट चुकी है। और वह अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रही है। यही नहीं बदली परिस्थितियों में चिराग पासवान को नई दिल्ली में 12 जनपथ स्थित बंगला (राम विलास पासवान को आवंटित था), जो पार्टी की पहचान का केंद्र था, वह भी खाली करना पड़ रहा है।
कुछ ऐसा ही हाल बिहार के विकासशील इंसान पार्टी प्रमुख मुकेश सहनी का है। महज दो साल में पार्टी बनाकर बिहार के सरकार में मंत्री तक बन चुके मुकेश सहनी, अब अपनी पार्टी में अकेले पड़ गए हैं। और उनके सारे विधायक (3) भाजपा में शामिल हो गए। अब एक और कहानी पर गौर करिए, बात उत्तर प्रदेश के सुभासपा प्रमुख ओम प्रकाश राजभर की है, 2022 के चुनाव परिणाम आने के पहले वह उप मुख्यमंत्री से लेकर किंगमेकर बनने का दावा कर रहे थे। लेकिन वह 6 सीटें जीतने के बाद भी हाशिए पर हैं। और उनके भाजपा के साथ फिर से हाथ मिलाने की चर्चाएं हैं। छोटे दलों के ये कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो बदलती भारतीय राजनीति का कहानी बयां कर रहे हैं।
अब किंग मेकर नहीं छोटी पार्टियां
पहले उत्तर प्रदेश की बात करते हैं, कहने को तो उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा छोटे राजनीतिक दल हैं। राज्य निर्वाचन आयोग के आंकड़ों के अनुसार राज्य में 18 मान्यता प्राप्त दल, 3 अमान्यता प्राप्त और 91 तात्कालिक पंजीकरण के साथ चुनाव लड़ने वाले दल हैं। इनमें से बड़ी पार्टियों के अलावा 10-12 छोटे दल ऐसे हैं। जो चुनावों में असर रखते हैं। लेकिन अगर परिणामों को देखा जाय तो ये छोटे दल चाहे भाजपा की बात हो या सपा , उनको सीट जिताने के लिए तो कारगर रहे। लेकिन वह ऐसा प्रदर्शन नहीं कर पाए कि भाजपा को बहुमत के लिए उनकी जरूरत पड़े। या फिर वह अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा सके।
हालांकि यह जरूर रहा कि ओम प्रकाश राजभर की सुभासपा 6 सीटें, निषाद पार्टी को 6 सीटें और अनुप्रिया पटेल के नेतृत्व वाला अपना दल 12 सीटें जीतने में सफल रहा । लेकिन महान दल, कृष्णा पटेल के अपना दल को वैसी कामयाबी नहीं मिली। इसी तरह जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोकदल को 8 सीटें जरूर मिली। लेकिन वह भी किंगमेकर नहीं बन पाए।
बिहार में भी बदला समीकरण
मुकेश सहनी का हश्र देखने के बाद हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (HAM) के भी सुर बदले हुए हैं। उनके प्रमुख जीतन राम मांझी जो बीच-बीच में एनडीए गठबंधन को धमकी दे रहे थे, वह भी मुकेश सहनी के साथ खड़े हुए नजर नहीं आ रहे हैं। हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के पास 4 विधायक है। यहां पर भाजपा के पास 77 और जनता दल (यू) के पास 43 विधायक हैं। ऐसे में मांझी का भी महत्व कम हो गया है।
बड़ी पार्टियों के बहुमत ने बदली भूमिका
असल में 90 और 2000 के पहले दशक में बड़ी पार्टियों को चुनावों में बहुमत नहीं मिलने से छोटे दलों का महत्व बढ़ गया था और वह किंग मेकर की भूमिका में नजर आते थे। लेकिन भाजपा के उभार ने इस भूमिका को बदल दिया है। अब चाहे प्रदेश के चुनाव हो या फिर लोकसभा चुनाव वोटर एक दल या गठबंधन को बहुमत जरूर देते हैं। जिसका असर छोटे दलों की भूमिका पर अब दिखने लगा है।
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