Birbhum Vioence: पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के बोगटुई गांव में 8 लोगों को जिंदा जला कर मार देने की घटना न केवल राज्य की कानून व्यवस्था पर सवाल उठाती है। बल्कि वहां स्थानीय स्तर पर सत्ता के संघर्ष को भी बयां करती है। असल में बंगाल में राजनीतिक हत्या का मामला कोई नया नहीं है। अगर तीन साल (2018-2020) के आंकड़े देखें जाए तो बिहार के बाद बंगाल में सबसे ज्यादा राजनीतिक हत्याएं होती हैं। इन तीन साल में बिहार में जहां 31 लोगों की जान गई , वहीं पश्चिम बंगाल में 27 लोगों को राजनीतिक हत्याओं का शिकार होना पड़ा।
बीरभूम में क्या हुआ
रामपुरहाट नंबर-1 पंचायत समिति के बड़साल ग्राम पंचायत के उप-प्रधान और टीएमसी नेता भादू शेख की सोमवार शाम कुछ अज्ञात लोगों ने हत्या कर दी थी। और उसके बाद कुछ लोगों ने कई घरों में आग लगा दी और इस हमले की वजह से 8 लोगों की जलने से मौत हो गई।
बीरभूम की घटना के बाद राज्य में विपक्ष के नेता और भाजपा विधायक शुभेंदु अधिकारी ने घटना को 'बर्बर नरसंहार' बताते हुए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की निंदा कर उनके इस्तीफे की मांग की है। वहीं ममता बनर्जी ने कहा है कि वहां के शीर्ष अधिकारियों को हटा दिया गया है। उनकी सरकार को बदनाम करने की साजिश की जा रही है। ये बंगाल है, उत्तर प्रदेश नहीं है। हर किसी को घटनास्थल पर जाने की अनुमति है।
इस बीच सरकार ने घटना की जांच के लिए एसआईटी का गठन कर दिया है।
वर्ष | राज्य | राजनीतिक हत्याएं | राज्य | पिछले 3 साल में कुल राजनीतिक हत्याएं |
2018 | बिहार | 9 | ||
प.बंगाल | 12 | बिहार | 31 | |
झारखंड | 1 | |||
केरल | 4 | |||
2019 | बिहार | 6 | बंगाल | 27 |
प.बंगाल | 12 | |||
झारखंड | 6 | |||
केरल | 5 | झारखंड | 14 | |
2020 | बिहार | 16 | ||
प.बंगाल | 3 | |||
झारखंड | 7 | केरल | 11 | |
केरल | 2 |
स्रोत: NCRB
स्थानीय स्तर पर ऐसे चलता है सत्ता का संघर्ष
पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का इतिहास 70 के दशक से शुरू हुआ। उसके बाद चाहें कांग्रेस की सरकार हो या सीपीएम और अब ममता बनर्जी कोई भी इस पर लगाम नहीं लगा पाई है। पिछले 40 साल से ऐसा क्यों हो रहा है, बंगाल की राजनीति पर करीब से नजर रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक सुनील कुमार सिंह ने टाइम्स नाउ नवभारत डिजिटल से बताया ' देखिए बंगाल की राजनीतिक हिंसा का इतिहास पुराना है। यहां पर कैडर बेस्ड सिस्टम है। जो गांव-मुहल्ले तक बना हुआ है। इसे समझने के लिए हमें क्लब सिस्टम को समझना होगा। वहां पर हर मुहल्ले तक क्लब बने हुए है। जिसमें सत्ताधारी पार्टी के कैडर के लोगों का कब्जा होता है। वहां पर छोटा सा भी काम बिना इन कैडर के सपोर्ट के नहीं किया जा सकता है।
यह सिस्टम इस लेवल पर बना हुआ है कि अगर कोई अपने पैसे से घर भी बनवाना चाहता है तो बिना उनकी मंजूरी के नहीं बनवा सकता है। पहले इन क्लब पर वाम दलों का कब्जा था। अब पिछले 10 साल से तृणमूल कांग्रेस के कैडर का कब्जा है। और अगर कैडर की बात नहीं मानी तो काम नहीं होगा।
इसके अलावा स्थानीय स्तर पर ठेके से लेकर दूसरे काम सरकार में बैठी पार्टी के कैडर को ही मिलते हैं। ऐसे में अगर उनका कोई विरोध करता है या उसके विरोध में खड़ा होता है, तो फिर हिंसा ही डराने और धमकाने का सहारा होती है।
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