नई दिल्ली: याद करिए वह दौर जब उत्तर प्रदेश 2017 के विधान सभा चुनावों में ये नारा लगा करते थे 'यूपी को ये साथ पसंद है, साइकिल और ये हाथ पसंद है'। इसी तरह 2019 में बुआ-भतीजे की जोड़ी काफी चर्चा में रही। यानी कभी सरकार बनाने के लिए समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया तो कभी लोक सभा में भाजपा को हराने के लिए सपा-बसपा ने गठबंधन किया। भाजपा को हराने के लिए इसके पहले 1993 में सपा और बसपा सफल गठबंधन कर चुके थे। लेकिन इन प्रयोगों के बावजूद 2021 का माहौल बदला हुआ है। चाहे सपा हो, बसपा या फिर कांग्रेस कोई भी अपने पुराने अनुभव को नहीं दोहराना नहीं चाहता। सबकी एक ही रट है, छोटे दल हमारे साथ गठबंधन करे। यानी बड़े दलों ने आपस में दूरी बना ली है। क्योंकि उन्हें यह लगता है कि भाजपा को हराना, अब 1993 जैसा आसान नहीं है। ऐसे में छोटे दल ही काम आ सकते हैं।
1993 में सफल लेकिन 2017 और 2019 में फेल
बड़े दलों के साथ गठबंधन कर चुनाव में उतरने की रणनीति देखी जाय, तो भाजपा को हराने के लिए सबसे सफल प्रयोग 1993 के चुनाव में मुलायम सिंह यादव और काशीराम ने किया था। उन चुनावों में सपा-बसपा ने मिलकर 176 सीटें जीती थी। और भाजपा को 177 सीटें मिली थी। और बाद में सपा-बसपा ने मिलकर सरकार बनाई थी। लेकिन इसके बाद चाहे विधान सभा चुनावों के लिए 2017 में सपा और कांग्रेस का गठबंधन रहा हो या फिर 2019 के लोक सभा चुनावों में सपा-बसपा का गठबंधन हो, दोनों बार वह भाजपा को रोकने में फेल रहा।
समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की पसंद छोटे दल
2022 के चुनावों के लिए अखिलेश यादव ने पूर्वांचल में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी , पश्चिमी उत्तर प्रदेश में महान दल के साथ गठबंधन कर लिया है। जबकि आरएलडी के साथ उसका गठबंधन पहले से है। वहीं उनके साझेदार ओम प्रकाश राजभर, भागीदारी संकल्प मोर्चे के दूसरे साथियों का भी समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करने का दावा कर रहे हैं। हालांकि असदुद्दीन ओवैसी के AIMIM और प्रजसपा के शिवपाल यादव ने दूरी बना ली है।
इसी तरह कांग्रेस भी अब छोटे दलों को साथ जोड़ने के लिए खुलेआम दावत दे रही है। कांग्रेस के चुनाव पर्यवेक्षक और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा यूपी में अभी हमारा किसी से गठबंधन नहीं, लेकिन छोटे दलों को साथ लेकर चलेंगे। ऐसे में कांग्रेस चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी, अपना दल (कृष्णा पटेल), राजा भैया जैसे विकल्प बने हैं। जबकि भाजपा ने अपना दल और निषाद पार्टी के साथ 2022 के लिए गठबंधन कर लिया है।
भाजपा ने रणनीति बदलने पर किया मजबूर
यूपी की राजनीति में आए इस बदलाव पर बाबा साहब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग के प्रमुख डॉ शशिकांत पांडे टाइम्स नाउ नवभारत डिजिटल से कहते हैं ' इस बदलाव की सबसे बड़ी वजह भाजपा है। उसने 2017 और 2019 के चुनावों में दिखा दिया कि राजनीति में 2+2=4 नही होते हैं। 2019 में जिस तरह सपा-बसपा के गठबंधन के बावजूद भाजपा को लोक सभा में 62 सीटें मिली। और 2017 में सपा और कांग्रेस के गठबंधन के बावजूद उसे 300 से ज्यादा सीटें मिली। उसने राजनीतिक पंडितों के सारे कयासों को फेल कर दिया। पार्टी ने 2017 में बेहद सूझ-बूझ की रणनीति के तहत ओम प्रकाश राजभर के सुभासपा और अनुप्रिया पटेल के अपना दल के साथ गठबंधन कर सफलता पाई। उसने दिखा दिया कि जातिगत राजनीति यूपी में बेहद अहम है।
दूसरी अहम बात यह है कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का उदय सामाजिक परिवर्तन की राजनीति के तहत हुआ। लेकिन कुछ समय बाद यह देखा गया कि दोनों दलों में केवल एक-दो जातियों को ही प्रभुत्व रहा। जिसकी वजह से ओम प्रकाश राजभर, सोने लाल पटेल, पीस पार्टी, महान दल, निषाद पार्टी को आगे बढ़ने का मौका मिला। और अब इनकी इतनी ताकत हो गई है कि वह आसानी से दूसरे बड़े दलों को सीट जताने में मदद कर सकते हैं। सुभासपा को 6 लाख तो निषाद पार्टी को 5.5 लाख वोट मिले हैं। इसलिए फिलहाल यूपी की राजनीति में छोटे दलों का महत्व बढ़ गया है।
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