नई दिल्ली : भारत और नेपाल के बीच पिछले दिनों सीमा विवाद को लेकर तनाव जब बढ़ा तो ऐसी आशंकाएं भी उठने लगीं कि नेपाल से ताल्लुक रखने वाले गोरखा अब संभवत: भारतीय सेना में शामिल न हों। इसकी वजह नेपाल में सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के कई शीर्ष नेताओं के बयान रहे, जिसमें उन्होंने 1947 में भारत-ब्रिटेन और नेपाल के बीच हुए एक त्रिपक्षीय समझौते को मौजूदा दौर में 'निरर्थक' बताया तो यह भी कहा कि नेपाली युवाओं को भारतीय सेना में शामिल नहीं होना चाहिए। हालांकि अभी बीते सप्ताह ही भारत के दौरे पर पहुंचे नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप कुमार ज्ञवाली के उस बयान ने ऐसी अटकलों पर विराम लगा दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि आपसी तनाव का असर भारतीय सेना की गोरखा रेजीमेंट में नेपालियों के जुड़ने पर नहीं पड़ेगा और इसमें कोई बदलाव नहीं आएगा।
अब अगर गोरखा सैनिकों की बहादुरी की बात करें तो इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत के साथ उलझने वाला चीन भी इनसे खौफ खाता है, जिसकी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को दुनिया की कुछ बड़ी सैन्य ताकतों में गिना जाता है। युद्ध में अदम्य साहस और शौर्य ही इनकी पहचान है और यही वजह है कि चीन भी इनसे परेशान है।
गोरखा सैनिकों का इतिहास वीरता की गौरवपूर्ण गाथाओं से भरा है। गोरखा सैनिकों की वीरता को लेकर एक बार भारतीय सेना के पूर्व प्रमुख और 8वीं गोरखा राइफल्स में सेवा दे चुके फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ ने कहा था, 'अगर कोई इंसान कहता है कि उसे मरने से डर नहीं लगता तो या तो वह झूठ बोल रहा है या वह गोरखा है।'
इन गोरखा सैनिकों की जन्मभूमि भले ही नेपाल है, लेकिन अपनी कर्मभूमि उन्होंने भारत को बनाई है। भारतीय सेना के प्रति उनकी निष्ठा और उनके पराक्रम का ही नतीजा है कि आज वे भारतीय सेना का सम्मान बन चुके हैं। इनकी तैनाती अक्सर कठिन युद्ध क्षेत्रों में होती है। आमने-सामने की लड़ाई और दुर्गम इलाकों में युद्ध को लेकर विशेष रूप से पारंगत ये गोरखा सैनिक कई बार खुखरी लेकर ही दुश्मनों से लड़ जाते हैं।
खुखरी 12 इंच लंबा एक तेजधार वाला नेपाली कटार है, जो प्रशिक्षण के बाद उन्हें दिए जाते हैं। भारतीय सेना में उनका प्रशिक्षण करीब 42 सप्ताह चलता है। ये शारीरिक और मानसिक रूप से बेहद मजबूत होते हैं और एक बार प्रशिक्षण पूरी कर लेने के बाद किसी भी हालात में देश की सेवा करने के लिए तैयार रहते हैं।
भारतीय सेना में नेपाली गोरखा सैनिकों की भर्ती किस तरह शुरू हुई, इसकी भी एक लंबा इतिहास है। गोरखा सैनिकों का ब्रिटेन की ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ पहली बार सामना 1814-16 के युद्ध में हुआ था। तब भारत में अंग्रेजों का राज हुआ करता था। इस युद्ध में हालांकि तब ईस्ट इंडिया कंपनी की जीत हुई थी, लेकिन अंग्रेज नेपाल के गोरखा जवानों की वीरता से प्रभावित हुए बिना न रह सके।
दुश्मनों की युद्धक्षमता से बेहद प्रभावित अंग्रेजों ने तब नेपाल के राजा के साथ जो संधि की थी, उसमें यह भी जोड़ा कि वे गोरखा जवानों की भर्ती ब्रिटिश सेना में कर सकेंगे। इसके बाद अगले कई वर्षों तक नेपाल के गोरखा सैनिक यूरोप सहित कई युद्धों में ब्रिटिश सरकार की ओर से लड़ते रहे। वर्ष 1947 में जब भारत आजाद हुआ तो इसे लेकर भारत-ब्रिटेन और नेपाल के बीच एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ, जिसके बाद गोरखा रेजीमेंट भारतीय सेना का हिस्सा बन गया, जो आज भी भारतीय सेना की शान बने हुए है।
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