महाराष्ट्र में अब भी शिवसेना की ही सरकार है। लेकिन गठबंधन का चेहरा और नाम बदला हुआ है। उद्धव ठाकरे की जगह एकनाथ शिंदे सीएम हैं और कांग्रेस-एनसीपी की जगह बीजेपी ने ले ली है। बागी विधायकों की अयोग्यता का मामला अदालत में है तो शिवसेना किसकी है यह मामला निर्वाचन आयोग के दफ्तर में है। आयोग ने शिवसेना के दोनों गुटों को दस्तावेजी साक्ष्यों के साथ आठ अगस्त को दोपहर एक बजे बुलाया है। बता दें कि एकनाथ शिंदे गुट का दावा है कि उन्हें 40 से अधिक विधायकों का समर्थन हासिल है। इसके साथ ही संसद में 12 सांसदों ने राहुल शेवाले को अपना नेता बनाया और स्पीकर ओम बिरला से मान्यता देने की गुहार लगाई।
8 अगस्त को दस्तावेजी साक्ष्य देने का दिन मुकर्रर
चुनाव आयोग ने दोनों गुटों से कहा कि वो लोग इस बात का दस्तावेजी प्रमाण पेश करें कि कार्यकर्ताओं, विधायकों, सांसदों , संगठन का समर्थन उनके पक्ष में है। जानकारों का कहना है कि जिस तरह से एकनाथ शिंदे गुट, उद्धव ठाकरे को हटाने में कामयाब रहा ठीक वैसे ही जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं ने भी शिंदे कैंप का दामन थामा है। यह बात अलग है कि ठाकरे कैंप का कहना है कि सिर्फ गद्दार ही पार्टी से बाहर ,सत्ता की मलाई खाने के लिए शिंदे कैंप के साथ जुड़े। लेकिन जमीनी स्तर पर कार्यकर्ता ठाकरे जी के साथ हैं। लेकिन अगर विधायकों की संख्या, सांसदों की संख्या को देखें तो उद्धव ठाकरे कैंप कमजोर नजर आ रहा है।
पार्टी सिंबल पर दावा
जब कोई गुट पार्टी पर अपना दावा करता है तो पहली मांग सिंबल की होती है। अब सवाल यह उठता है कि इसके पीछे वजह क्या है, दरअसल इसका ऐतिहासिक आधार है। देश की आजादी के समय साक्षरता दर करीब 12 फीसद दी। बड़ी संख्या में मतदाता निरक्षर थे। लिहाजा पार्टियों ने अपने समर्थकों को और मतदाताओं के लिए चिन्ह की जरूरत महसूस की। तात्कालिक जरूरत को देखते हुए चुनाव आयोग की तरफ से चुनाव चिन्ह आवंटवन का सिलसिला शुरू हुआ। और यह सिलसिला ईवीएम के दौर में भी मौजूद है। लिहाजा जब किसी तरह का विवाद होता है तो पार्टी के अंदर विरोधी पर सिंबल पर दावा ठोकते हैं।
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