उत्तर प्रदेश का अहम शहर कानपुर उस वक्त दहल गया जब वहां पुलिस की एक टीम पर बदमाशों ने अंधाधुंध फायरिंग कर दी जिसमें एक सीओ, एक एसओ, दो एसआई तथा 4 जवान समेत 8 पुलिसकर्मी शहीद हो गए पुलिस को सूचना मिली थी हिस्ट्रीशीटर विकास दुबे गांव में छिपा है और विकास दुबे के इतिहास को देखते हुए करीब 40 पुलिसकर्मियों की टीम वहां पहुंची थी। इस घटना ने प्रदेश ही नहीं बल्कि देश को भी हिलाकर रख दिया।
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने इस घटना पर कठोर कार्रवाई के आदेश दिए हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक (DGP) विक्रम सिंह कानपुर की घटना को बेहद गंभीर मानते हैं। वह कहते हैं- 'इससे पहले प्रदेश में ऐसी ही घटना 1981 सितंबर में उत्तर प्रदेश के एटा जिले में छविराम गिरोह ने की थी जिसमें 11 पुलिस कर्मी शहीद हुए थे उसके बाद से कानपुर के चौबेपुर में ये बेहद गंभीर घटना सामने आई है।'
पूर्व पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह ने बताया कि 1981 के बाद ऐसी घटना की पुनरावृत्ति 2020 में कानपुर में सामने आई है, इसलिए इस पर विचार करने की आवश्यकता है। उस वक्त एटा, मैनपुरी,फर्रूखाबाद आदि जनपदों में कई गिरोह सक्रिय थे। इनमें छविराम, पोथी, महावीरा,अनार सिंह आदि थे। इन्हें राजनीतिक संरक्षण प्राप्त था लेकिन फिर भी यूपी पुलिस ने इन्हें अपनी बहादुरी से निष्क्रिय किया था। विकास दुबे के उपर 60 अपराध थे जिनमें गैंगस्टर एक्ट, गुंडा एक्ट, रासुका आदि थे। उसने दर्जा राज्यमंत्री संतोष शुक्ला की हत्या थानेदार के कमरे में कर दी थी। विकास जमानत पर बाहर किन परिस्थितियों में आया ये जांच का विषय है। लेकिन घर का भेदी लंका ढ़ाए, बिना अंदरुनी मुखबिरी के इतना सबकुछ संभव नहीं था।
इसका मूल्यांकन करना होगा। देखना होगा कि आखिर कहां चूक रही। त्रुटिपूर्ण निगरानी, अभिलेखों की अनदेखी करना या स्थानीय पुलिस की संलिप्तता। सीएम योगी की खुली छूट देने के बाद भी बदमाशों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई के निर्देशों के बाद भी विकास दुबे जैसे दुर्दांत अपराधी इस प्रकार स्वछंद रूप से क्रियाशील रहे, ये अत्यंत दुखद और आपत्तिजनक स्थिति है।
पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह कहते हैं- कालांतर में स्थितियां बदलीं। योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री रहते हुए अपराध पर अंकुश लगा और अपराधियों पर कठोर कार्रवाई हुई है। कई कुख्यात आज जेल की हवा खा रहे हैं। इसी वजह से यकीन किया जा सकता है कि इस कांड के बाद उत्तर प्रदेश से अपराध के समूलनाश का बिगुल योगी आदित्यनाथ बजा सकते हैं। योगी सरकार ने पुलिस के मनोबल को बढ़ाने के लिए उनके नाना प्रकार भत्ते बढाए, उच्च कोटि के हथियार अच्छे वाहन दिए। उनकी सुख सुविधा का विशेष ध्यान रखा गया और ये भी निर्देश दिया गया कि सभ्य समाज में अपराधियों का कोई स्थान नहीं है। अब ये पुलिसकर्मियों अधिकारियों के ऊपर है कि इस कसौटी पर खरा उतरे और जनता की सुरक्षा भलीभांति सुनिश्चित करें।
पूर्व पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह कहते हैं- राज्य सरकार को चाहिए कि इसकी समीक्षा करे और जो भी स्थानीय स्तर पर इसके लिए दोषी हैं उनके विरुद्ध ठोस कार्रवाई हो। यदि थाने-चौकी से किसी ने विकास दुबे को पूर्व सूचना दी है तो उसको सेवामुक्त करने की कार्रवाई के साथ ही अनुच्छेद 311 भारतीय संविधान के तहत उनके विरुद्ध सुसंगत धाराओं के अंतर्गत अपराध पंजीकृत कर उनके खिलाफ कार्रवाई की जाए। ताकि संदेश जाए कि ऐसे अवांछनीय पुलिसकर्मियों का स्थान भारतीय पुलिस बल में नहीं है।
ये तार्किक है कि एक अपराध के आधार पर कानून व्यवस्था का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है लेकिन ये भी सत्य है कि इस एक अपराध ने राज्य के पुलिसकर्मियों अधिकारियों को झकझोर कर रख दिया है और कहा जा सकता है कि खतरे की घंटी बज चुकी है और अब ना जागे तो कब जागेंगे?
कुछ साल पहले की बात है कि एक आतंकवादियों के संबध में वाद वापस लेने की प्रकिया शुरु कर दी गई थे। ये वो खूंखार आतंकवादी थे जिन्होंने बम विस्फोट करके हत्यायें की, राज्य के खिलाफ षडयंत्र रचा। ये हमारी न्यायपालिका की कृपा थी कि हाईकोर्ट की कठोर टिप्पणी के बाद ये आपत्तिजनक कृत्य समाप्त हुआ।
उल्लेखनीय है कि उन्हीं दिनों एक आतंकवादी की बाराबंकी में पेशी के दौरान लू के चलते मौत हो गई और इससे भी बढ़ा अंधेर ये हुआ कि तत्कालीन डीजी सिविल डिफेंस और पू्र्व पुलिस महानिदेशक बृजलाल और पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह और एसटीएफ के जांबाज 42 अधिकारियों-कर्मियों के विरुद्ध हत्या का मुकदमा लिखाया गया। ऐसी मिसाल मिलनी दूभर है, वो तो कालांतर में इस सत्यता के आधार पर मामले का निस्तारण हो गया, नहीं तो ये संदेश दे दिया गया था कि इस प्रकार के कुख्यात अपराधियों की तरफ देखना भी जुर्म है। इस उपसंस्कृति के आधार पर कैसे उम्मीद की जाती है कि पुलिस वाले अपनी ड्यूटी भलीभांति कर पायें क्योंकि मनोबल गिराने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई थी।
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