आजादी का अमृत वर्ष चल रहा है और आज गांधी जयंती का दिन है। यह संयोगों का ही संयोग रहा कि एक के बाद एक लगातार गांधी को स्मरण करने के विशेष अवसर आते रहे। बीते साल गांधी जी की 150वीं जयंती का वर्ष बीता, उसके पहले चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष की शुरुआत हुई थी। गांधी को अलग-अलग माध्यमों और आयामों के साथ याद किया जाता है। पर गांधीजी के एक पक्ष पर उस तरह से बात नहीं हुई, जो पक्ष गांधी जी के जीवन से गहराई और मजबूती से जुड़ा था। वह पक्ष संगीत का पक्ष है।
गांधी जी को केंद्र में रखकर, गीत-संगीत की दुनिया पर जब बात होती है तो उसका कैनवास बहुत बड़ा हो जाता है। गांधी जी के पूरे सफर को देखें तो वे संघर्ष और सृजन को साथ लेकर चलने में विश्वास रखते थे। सृजन के विविध पहलुओं को छोड़ अगर सिर्फ गीत-संगीत की दुनिया पर ही बात करें तो उनके जीवन में संगीत शुरू से ही समाहित रहा। गांधी पर रचित विविध साहित्य में यह बात दर्ज है कि कैसे बचपन में ही उन पर अपने माता-पिता से सस्वर गीता पाठ सुनते हुए संगीत का प्रभाव पड़ा। वह लंदन पढ़ाई करने जाने के बाद पियानो खरीदने और सीखने के रूप में दिखा। फिर तो वे आजीवन संगीत से जुड़े रहे। संगीत को खूब बढ़ावा देते रहे। गांधी ने यहां तक कहना शुरू किया जहां संगीत नहीं, वहा सामूहिकता नहीं, जहां सामूहिकता नहीं वहां सत्याग्रह नहीं और जहां सत्याग्रह नहीं, वहां सुराज नहीं।
गांधी जी की तरह संगीत को बढ़ावा देनेवाला उस वक्त कोई और दूसरा नेता नहीं था। बहुत विस्तार से बात छोड़ भी दें तो कुछ बातों पर गौर कर सकते हैं। नरसी मेहता रचित वैष्णव जन तो तेने कहिए... गीत तो उनके रोजाना प्रार्थना का हिस्सा था। रघुपति राघव को तो वे रोज गाते ही थे। गांधीजी की यात्रा में गांधीजी के साथ चलने वाले लोग हाथ में इकतारा लेकर चलते थे।
शास्त्रीय संगीत के समानांतर रूप से गांधीजी लोकगीतों को लेकर भी उतने ही, या कहें कि उससे भी ज्यादा संजीदा थे। गांधीजी का यह कथन बहुत मशहूर है कि लोकगीतों में पर्वत गाते हैं, नदियां गाती हैं, पशु-पक्षी गाते हैं, पूरी सृष्टि गाती है। यह तो उनका कथन है, व्यावहारिक रूप से भी देखें तो गांधीजी का लोकसंगीत से गहरा जुड़ाव रहा। भोजपुरी में रसूल मियां, मैथिली में स्नेहलता से लेकर कई रचनाकारों ने गांधी को केंद्र में रखकर एक से बढ़कर एक गीत रचे। भोजपुरी, मैथिली के साथ ही मगही, नागपुरी, अवधि आदि भाषाओं के पारंपरिक गीतों पर गांधीजी का जबर्दस्त प्रभाव पड़ा। अनेक ऐसे गीत मिलते हैं, जिसे गांधीजी के समय में गांधी जी के रंग में ढाल दिया गया था। ग्रामीण महिलाओं ने गांधीजी के प्रभाव में सोहर, कजरी, विवाह गीत से लेकर अनेकानेक रस्मों के गीतों को गांधी के रंग में ढाला।
यहां एक प्रसंग की चर्चा करना चाहूंगी। एक बार जब गांधी यरवदा जेल में बंद थे तो उन्हें आंदोलन के लिए लोगों एकजुट करना था। गांधी ने जेल में ही गाना शुरू किया। उठ जाग मुसाफिर भोर भयी, अब रैन कहां जो सोवत है... गांधी ने गाना शुरू किया तो सरदार पटेल, महादेव देसाई सब साथ आ गये। धीरे धीरे सारे कैदी गांधी के साथ यह गीत गाने लगे। आंदोलन का माहौल बन गया, गांधी संगीत का ऐसे ही इस्तेमाल करते थे.
एक और रोचक प्रसंग है। गांधी जब काशी पहुंचे तो उनकी मुलाकात विद्याधरी बाई से हुई। विद्याधरी बाई अपने जमाने की मशहूर गायिका थीं। गांधी ने विद्याधरी बाई से कहा कि आपलोग भी राष्ट्रीय आंदोलन में अपनी भूमिका निभाइये, सहयोग कीजिए, गांधी के इस आह्वान पर काशी तवायफ संघ का गठन हुआ। राष्ट्रीय आंदोलन के लिए चंदा जाने लगा। फिर गांधी कलकता पहुंचे, वहां गौहर जान से मिले। गौहर जान से भी उन्होंने कहा कि आप राष्ट्रीय आंदोलन में भूमिका निभाइये, गौहर जान ने विशेष शो किये, पैसा जमा कर सहयोग किया। गांधी ने बिहार की महिलाओं से अपील की कि बिहार की महिलाएं भी सहयोग करें। बिहार की महिलाओं ने गांधी के आह्वान पर अपना गहना—गिठो, सब दान देना शुरू किया। यह घटना बज्ज्किा भाषा की एक कजरी में दर्ज है। महिलाएं
समूह गान में कहती हैं —
सइयां बुलकी देबई, नथिया देबई, हार देबई ना
अपना देश के संकट से उबार देबई ना...
गांधी का लोकसंगीत पर और महिलाओं पर इस तरह से ही असर पड़ता है।
(लेखिका चंदन तिवारी संगीत नाटक अकादमी सम्मान से सम्मानित लोकगायिका हैं।)
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