कर्नाटक में हिजाब के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। सुनवाई के दौरान हिजाब के समर्थन में और विरोध में दलीलें पेश की गईं। लेकिन दिलचस्प प्रसंग तब आया जब याची ऐशत सिफा के वकील ने नथुनी, झुमका, जनेऊ तक का जिक्र कर डाला। उनकी दलील थी कि आखिर सरकारें इन पर रोक क्यों नहीं लगाती है। हिजाब पहनना एक खास धर्म की रीति है और उस रीति पर रोक कैसे लगाई जा सकती है। आखिर संवैधानिक व्यवस्था के तहत हर एक शख्स को अपनी मान्यताओं के आधार पर खाने पीने, पहनने ओढ़ने का अधिकार है। ऐशत सिफा के वकीस देवदत्त कामत की अपील पर जजों ने कहा कि आप अतार्किक बात क्यों कर रहे हैं। जिन प्रतीकों का आप जिक्र कर रहे हैं वो कपड़ों के अंदर पहने जाते हैं। क्या कोई संस्थान कपड़ा उतारने के लिए कहेगा।
'सवाल सिर्फ यूनिफॉर्म के ऊपर हिजाब का है'
अदालत ने कहा कि बात यह है कि क्या यूनिफॉर्म के ऊपर हिजाब पहना जाए या नहीं। यही बहस का आधार होना चाहिए। मामले को विद्वान वकील इधर उधर उलझाने में क्यों लगे हुए हैं। अदालत उन्ही मुद्दों पर जिरह को आगे बढ़ाने की अनुमति देगी जो तार्किक होंगे। याचिकाकर्ता के वकील देवदत्त कामत ने अदालत से कहा कि सवाल यह है कि आखिर हिजाब पहनने से किसके मूल अधिकार का हनन हो रहा है। उनके इस तर्क पर अदालत ने पूछा कि सवाल दूसरे के मूल अधिकारों के हनन से संबंधित नहीं है, मुद्दा यह है कि क्या आपको वह मूल अधिकार है।
हिजाब विवाद- कॉलेज, सड़क से अदात तक
अतार्किक दलील ना पेश करें
बुधवार को सुनवाई में जस्टिस हेमंत गुप्ता ने मौखिक टिप्पणी में कहा कि आप इसे अतार्किक अंत तक नहीं ले जा सकते। लेकिन जब याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि कपड़े पहनने का अधिकार मौलिक है तो कपड़े उतारने का अधिकार भी मौलिक बनता है। इस पर वकील कामत ने कहा कि स्कूलों में कोई कपड़े नहीं उतार रहा है।'
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