प्रमोद सिंह चौहान। भारत में श्रम करने का स्वभाव और सामर्थ्य सदैव से रहा है। जब भारत सोने की चिड़िया कहलाता था तब घर-घर में ऐसे निर्माण और उत्पादन के कार्य चलते थे जिनमें व्यक्तिगत और पारिवारिक कौशल तथा श्रम की आवश्यकता रहती है। भारत में पूंजीवाद नहीं था जिसके कारण बड़े-बड़े निर्माण के कारखाने नहीं थे और भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में वहां की मानव संसाधन की विशेषज्ञता, जलवायु और परिस्थितियों के कारण से अलग-अलग वस्तुओं का उत्पादन होता था। भारत में बड़े व्यापारी थे जो इन कुटीर उद्योगों में बनी वस्तुओं को क्रय करते थे और भारत में तथा भारत के बाहर इन वस्तुओं की बिक्री और निर्यात करते थे। क्योंकि निर्माण उत्पादन की प्रक्रिया का विकेंद्रीकरण था इसलिए हर हाथ को काम मिलता था, हर परिवार में हर व्यक्ति के पास पर्याप्त धन रहता था, जिसके कारण से भारत के लोगों की क्रय शक्ति भी अधिक थी। भारत में उत्पादित वस्तुओं के निर्यात के कारण से भारत का विश्व की अर्थव्यवस्था में योगदान सर्वाधिक था।
भारत विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था था। कैम्ब्रिज के आर्थिक इतिहासकार एंगस मैडिसन के अनुसार विश्व की अर्थव्यवस्था में भारत का योगदान पहली शताब्दी में लगभग 33%, वर्ष 1000 में 29% और वर्ष 1700 में 24% था। ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में भारत की अर्थव्यवस्था का जमकर शोषण और दोहन होने के कारण यह योगदान बुरी तरह से घटकर 3.4% रह गया। यूरोप में भारत का जो माल जाता था वह इटली के दो नगर जिनोआ और वेनिस से जाता था। ये नगर भारतीय व्यापार से मालामाल हो गए। वे भारत का माल कुस्तुन्तुनिया की मंडी में खरीदते थे। इन नगरों की धन समृद्धि को देखकर यूरोप के अन्य राष्ट्रों को भारतीय व्यापार से लाभ उठाने की प्रबल इच्छा थी। इसी कारण से भारत तक पहुंचने के नये-नये मार्गों की खोज विश्व भर में होती रहती थी।
सातवीं शताब्दी के प्रारंभ से ही भारत की आर्थिक संपन्नता के कारण से भारत पर अनेक जनजातीय कबीलों के द्वारा संगठित लूट हेतु आक्रमण होने प्रारंभ हो गए थे। इनमें इस्लामिक आक्रांताओं द्वारा किए गए आक्रमण सर्वाधिक वीभत्स और दमनकारी थे। भारतीय समाज यद्यपि वीर, साहसी और सामर्थ्यवान था किंतु उसकी परंपरा धर्म युद्ध की थी, अर्थात युद्ध में भी धर्म का पालन करना। युद्ध में कोई बर्बरता नहीं करना और महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों को युद्ध से पृथक रखना। लेकिन बर्बर इस्लामिक कबीलों के आक्रमणकारी इन सब मर्यादाओं का पालन नहीं करते थे और वह सामने आने वाले प्रतिद्वंदी का सर्वनाश करने का प्रयास करते थे। इसमें वे महिलाओं, बुजुर्गों एवं बच्चों के प्रति भी अत्यधिक अमानुषिक व्यवहार करके प्रतिद्वंदी की सामरिक, आर्थिक क्षमता के साथ-साथ उसे मानसिक रूप से भी तोड़ने का कार्य करते थे।
किंतु आदिकाल से अपनी वर्ण परंपरा के आधार पर भारतीय समाज इन सब आक्रमणों का सफलतापूर्वक प्रतिरोध ही नहीं कर रहा था अपितु स्थान - स्थान पर इन आक्रमणों को पराजित भी कर रहा था, क्योंकि भारतीय समाज में लड़ने वाला वर्ण अलग था, आध्यात्मिक चेतना और मनोबल जागृत रखने का कार्य करने वाला वर्ण अलग था, समाज की आर्थिक व्यवस्था सुचारु रुप से चलती रहें यह चिंता करने वाला वर्ण अलग था और समाज की विभिन्न व्यवस्थाओं को गति देने वाला वर्ण अलग था। बाद में संघर्षों के अत्यधिक दबाव में कब यह वर्ण व्यवस्था बिखर गई और इसमें अपने - अपने को बचाने के उद्देश्य के कारण तथा कतिपय बाद में हुए षड्यंत्र के कारण ऊंच-नीच और छुआछूत का भेद जैसी एक नई बुराई की आ गई, यद्यपि यह एक भिन्न विषय है जिस पर अलग से विस्तृत चर्चा की जा सकती है।
जैसा कि युद्ध में होता है जय और पराजय दोनों साथ - साथ चलती हैं। अनेक स्थान पर हमारे वीर साहसी राजा विजयी हुए तो कुछ स्थानों पर पराजित भी हुए। हमारी सांस्कृतिक उत्कृष्टता के कारण से जहां हम विजयी हुए वहां हमने शत्रु के साथ भी सदव्यवहार किया किंतु जहां हम पराजित हुए वहां भारतीय समाज को अत्यधिक अत्याचार सहन करने पड़े, यहां तक कि उनका धर्म भी उनसे छीन कर उनकी स्मृतियां भी मिटाने का कार्य किया गया। यह तो भारत की संस्कृति की अमर जिजीविषा थी जिसके कारण कोई भी हमें पूरी तरह से नष्ट नहीं कर पाया। यद्यपि ऐसी परिस्थितियों में भी अनेक भारतीय महापुरुषों ने चाहे वह शिवाजी हों, महाराणा प्रताप हों, रानी चेन्नम्मा हों, शंकराचार्य हों, गुरु गोविंद सिंह हों सभी ने भारतीय समाज के स्वाभिमान को जगाए रखने का, उसे संघर्षरत रखने का, स्वतंत्रता प्राप्ति का विचार मन में जीवित रखने का कार्य किया।
जिस कालखंड में भारतीय निर्माताओं एवं व्यापारियों को नई-नई तकनीक विकसित करनी और अपनानी चाहिए थी। अपने उत्पादन की विधियों का उच्चीकरण करना चाहिए था, उस समय संपूर्ण भारतीय समाज अपने ऊपर हो रहे इन बर्बर हमलों के प्रतिरोध और अपने को बचा लेने के संघर्ष में फंसा हुआ था।
इसी बीच यूरोप में कृषि क्रांति और औद्योगिक क्रांति प्रारंभ हो गई थी। भाप के इंजन के आविष्कार के साथ ही वहां कुटीर उद्योगों के स्थान पर बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना होनी प्रारंभ हो गई थी, जिसके कारण से यूरोप में उत्पादन एकदम से बढ़ गया था। अब यूरोप की आवश्यकता थी इस उत्पादन को खपाने के लिए नये - नये बाजार ढूंढना और साथ ही उत्पादन हेतु आवश्यक कच्चा माल भी प्राप्त करना। इसी क्रम में ब्रिटेन की ईस्ट इंडिया कंपनी, फ्रेंच और पुर्तगालियों के कदम भारत में पड़े। भारत की विशाल जनसंख्या, उसकी क्रय शक्ति और कच्चे माल की प्रचुर मात्रा में उपलब्धता यह ऐसे तीन कारण थे जिसके फलस्वरूप फ्रेंच, पुर्तगीज और ब्रिटिश इन सभी देशों ने भारत पर अपना अधिकार जमाने के प्रयास प्रारंभ किए।
लगातार 1000 वर्षों से संघर्षरत भारतीय समाज का आत्मबल टूट चुका था। जय पराजय के इस दौर में हर व्यक्ति की प्राथमिकता अपने को और अपने परिवार को बचा लेने की ही रह गई थी, सामूहिक प्रयासों का अभाव हो गया था। जिसके फलस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व के बदलते हुए आर्थिक परिवेश से तालमेल बिठाने में विफल हो गई और धीरे-धीरे संपूर्ण भारतवर्ष पर ब्रिटिश अधिपत्य के कारण भारत के औद्योगिक क्षेत्र का अपूर्व शोषण और प्राकृतिक संसाधनों का अभूतपूर्व दोहन हुआ उसके कारण से भारत का आर्थिक तंत्र ध्वस्त होता चला गया। ब्रिटेन और यूरोप के कारखानों में बने विदेशी माल से भारतीय बाजार पट गए।
विदेशों से जो भी सामान आता था पूर्व में भारत में भी उसका निर्माण होता ही था, अंग्रेज अधिकारियों ने इस बात को अनुभव करके भारत में जो निर्माण की कुटीर उद्योगों और लघु उद्योगों की परंपरा थी उसे ध्वस्त करने के सभी प्रयास किए। बंगाल का रेशमी वस्त्र उद्योग, ढाका की मलमल विश्वप्रसिद्ध थी , ऊनी वस्त्र उद्योग के केन्द्र कश्मीर, काबूल, आगरा, लाहौर और पटना थे। कश्मीर के शाल, कम्बल, पट्टू और पश्मीना प्रसिद्ध थे। फतेहपुर सीकरी में ऊनी दरियाँ बनती थी। दिल्ली चमड़ा उद्योग के लिये प्रसिद्ध था। चीनी उद्योग देशव्यापी था,अंग्रेज और डच व्यापारी भारत से चीनी का निर्यात करते थे। गोलकुण्डा में उच्चकोटि का लोहा और स्टील का निर्माण होता था। कालिंजर, ग्वालियर, कुमायूँ, सुकेत मण्डी (लाहौर) में लोहे की खानें थीं। इसके अतिरिक्त भारत में आभूषण, हस्तशिल्प, इत्र मसाले, भवन निर्माण सामग्री आदि व्यवसाय अपने चरम पर थे।
भारत से कच्चे माल की लूट करके उसे यूरोप के कारखानों में भेजना और वहां से तैयार माल को भारत में ऊंची कीमतों पर बेचना, यह तभी संभव था जब भारत औद्योगीकरण से दूर रहे, एक कृषि प्रधान देश ही बना रहे और यहां के कुटीर उद्योग पूरी तरह से नष्ट हो जाएं। भारत में जाति परंपरा थी किंतु जातिगत भेदभाव बहुत अधिक नहीं था। यह अंग्रेजी शासन के हित में था कि भारत में जो श्रम करने वाली जातियां हैं, जिनके दम पर भारत का कुटीर उद्योग जीवित है उनके श्रम करने के कारण से उनके प्रति समाज व्यवस्था में उनके नीचे होने का भाव जनमानस में पैदा किया जाए। जिससे इन जातियों की नई पीढ़ी अपने परंपरागत श्रम आधारित उद्योग से विमुख हो जाए और धीरे-धीरे कुशल परंपराओं और कारीगरों के अभाव में ये परंपरागत कुटीर उद्योग अपना दम तोड़ दें।
ब्रिटिश शासक इसमें सफल भी हुए और कुटीर उद्योगों के समाप्त होने तथा प्राकृतिक संसाधन और अर्थव्यवस्था के अत्यधिक दोहन के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था सिमटती चली गई। वर्ष 1947 में जब भारत को स्वतंत्रता मिली तब भारत का विश्व की अर्थव्यवस्था में योगदान अपने निम्नतम स्तर पर पहुंच कर मात्र 3% तक रह गया था।
भारत में आज भी परंपरागत कौशल की कोई कमी नहीं है, अनुवांशिक रूप से भारतीय समाज एक श्रेष्ठ बौद्धिक और शारीरिक कौशल रखने वाला समाज है। भारतीय समाज के मन में जो नौकरी करने को सरल एवं अभिजात्य तथा श्रम करने को छोटा कार्य मानने का भाव निर्माण किया गया है उसने भारत की श्रम परंपरा, औद्योगिक परंपरा एवं उद्यमशीलता को अत्यधिक हानि पहुंचाई है। सरकारों ने भी उद्यमशीलता को बढ़ाने के लिए कोई बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया, बल्कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी सब प्रकार के उद्योग सरकार द्वारा ही स्थापित किए जाएं ऐसा भी एक वातावरण देश में निर्मित हुआ। व्यक्तिगत एवं राजनीतिक हितों के कारण से भी जब - जब भारत में किसी ने कौशल निर्माण की, छोटे-छोटे कार्यों को भी बड़े रूप में आगे बढ़ाने की बात कही उसका मजाक ही उड़ाया गया।
प्रवासी मजदूर अपने नगर या गांव को लौट कर आए हैं। वे अपने - अपने कार्य में दक्ष और प्रशिक्षित भी हैं। उन्हें आवश्यक आर्थिक एवं सामाजिक सहयोग उपलब्ध कराकर इस शक्ति का उपयोग स्थानीय स्तर पर किया जा सकता है। नगर, गांव में वापस लौटे यह मजदूर उन क्षेत्रों की मांग और क्रय शक्ति को बढ़ाने का भी कार्य करेंगे। अब तक जो मांग बड़े महानगरों तक केंद्रित होकर उन्हें आर्थिक शक्ति बनती थी, वह विकेंद्रित होकर सारे देश में नई मांग उत्पन्न करेगी। इस मांग की पूर्ति तभी संभव है जब इन प्रवासी मजदूरों को स्थानीय स्तर पर अपना व्यवसाय प्रारंभ करने के लिए सहयोग प्रदान किया जाए अथवा जिन क्षेत्रों में यह मजदूर लौटे हैं वहां पर नवीन औद्योगिक क्षेत्र स्थापित करके, उन उद्योगों में इस श्रम शक्ति का नियोजन किया जाए। इस प्रकार वापस आने वाले प्रवासी सभी जाति वर्ग के हैं। भारतीय समाज व्यवस्था के कारण जहां यह प्रवासी अपने नगर, गांव से बाहर जाकर कोई भी काम करने में अपमानित अनुभव नहीं करते थे, उसी काम को अपने नगर, गांव में करने में संकोच अनुभव कर सकते हैं। इसलिए समाज को भी अपनी मानसिकता में परिवर्तन करना होगा। समाज के प्रबुद्ध लोगों को आगे आकर श्रम का सम्मान होना चाहिए ऐसा अभियान चलाना होगा।
आज कोरोना के कारण विश्व में जो संकट का समय आया है, जो चुनौती राष्ट्र और मानवता के समक्ष आई है उसे निश्चित ही एक अवसर के रूप में बदला जा सकता है। यह बिल्कुल ठीक समय है जब भारत में औद्योगिक उत्पादन का वातावरण निर्माण का सूत्रपात किया जाए, श्रम करने को छोटा ना माना जाए, परंपरा के अनुसार जो जातियां किसी कार्य को करती रही हैं उन्हें सभी जातियां अपनाएं और श्रम को सम्मान की दृष्टि से देखें। श्रमेव जयते का भाव समाज में उदय हो। इस संदर्भ में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा प्रारंभ एक जनपद - एक उत्पाद अभियान आदर्श उदाहरण है। यह अर्थव्यवस्था में गति लाने का तथा भारत को आत्मनिर्भर बनाने का सर्वाधिक सक्षम प्रयोग हो सकता है, क्योंकि इसी मॉडल के आधार पर भारत कभी सोने की चिड़िया हुआ करता था। आत्मनिर्भर भारत ही, भविष्य में सोने की चिड़िया कहलाएगा और हम अपने जीवन में पुनः एक बार परम वैभवशाली भारतीय समाज के दर्शन कर पाएंगे।
(लेखक आगरा के वरिष्ठ चार्टर्ड अकाउंटेंट एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वह कोल इंडिया लिमिटेड की सहयोगी कंपनी सेंट्रल माइन प्लानिंग एंड डिजाइन इंस्टीट्यूट लिमिटेड में स्वतंत्र निदेशक हैं।)
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