नई दिल्ली। पाकिस्तान, भारत का एकमात्र ऐसा पड़ोसी देश है जिसने तरक्की की राह से ज्यादा विध्वंस के रास्ते पर चलना अधिक पसंद किया। 1965, 1971 की जंग में करारी हार मिली थी। लेकिन 1971 की जंग को वो नहीं भूल पाता है जब उसके दो टुकड़े हो गए। उसकी टीस उसे कुछ इस तरह सालती रही कि पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर में छद्म युद्ध शुरु किया जो आज भी जारी है। आज से करीब 20 साल पहले 1999 में वो महीना मई का था जब कारगिल की चोटियों पर पाकिस्तानी सेना ने नापाक कब्जा कर लिया। भारत के सामने सैन्य बल के अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं था क्योंकि लाहौर बस यात्रा से बने सद्भाव के माहौल को पूरी तरह खराब कर दिया गया।
नवाज शरीफ की गलबहियां और परवेज मुशर्रफ का कुचक्र
एक तरफ से नवाज शरीफ भारत के साथ गलबहियां का नाटक कर रहे थे तो उसी समय उनका जनहरल परवेज मुशर्रफ की निगाह करगिल पर थी और उसके साथ ही साथ पाकिस्तान की कुर्सी पर थी। करगिल में तो उसे हार खानी पड़ी लेकिन तख्ता पलट के जरिए वो पाकिस्तान की गद्दी पर काबिद हो गया थामई में पहाड़ों की बर्फ पिघल रही थी। लेकिन सेना के तोपों ओर टैंकों ने गरजना शुरू कर दिया था। करीब 60 दिनों तक चली लड़ाई का अंत 26 जुलाई 1999 को हुआ जिसे भारत में कारगिल विजय दिवस के तौर पर मनाया जाता है।
क्या भारतीय फौज पार कर सकती थी एलओसी
अब यहां सवाल उठता है कि क्या भारतीय फौज उस वक्त एलओसी पार कर सकती थी। इस सवाल के कई जवाब है, जिस समय कारगिल की लड़ाई लड़ाई जा रही थी वो भारत के लिए आसान नहीं था दुश्मन सेना कारगिल की सीधी खड़ी पहाड़ियों पर कब्जा कर चुकी थी। रणनीतिक तौर पर पाकिस्तानी फौज को लाभ ही लाभ था। लेकिन भारतीय सेना के अदम्य साहस की गवाह तो पूरी दुनिया है। भारत ने पाकिस्तानी सैनिकों के छक्के छुड़ा जाता है। एक आंकड़े के मुताबिक पाकिस्तान के 4 हजार सैनिक मारे गए थे और पाकिस्तान एक तरह से बेदम हो गया और सरेंडर की मुद्दा में आ गया। पाकिस्तानी सेना के कब्जे वाली पोस्ट फिर भारत के कब्जे में थीं।
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