तारीख तो यही15 जनवरी है लेकिन साल 1956 का था।आज का गौतमबुद्धनगर,गाजियाबाद जिले का हिस्सा होता थाऔर दादरी उसकी तहसील।दादरी तहसील से महज चार से पांच किमी के फासले पर बादलपुर गांव में प्रभु दास के घर खुशी का माहौल था।उनके घर एक लड़की ने आंखें खोलीं जिसके खाते में राजयोग लिखा था। बड़े प्यार से उस लड़की को नाम मिला चंद्रावती।हालांकि बाद में उसका नामकरण मायावती के तौर पर हुआ और वो भारतीय राजनीति की ऐसी शख्सियत बनीं जो सरकार बना और बिगाड़ सकती थीं।
कलेक्टर बनने का था सपना
मायावती की दिल्ली से पढ़ाई लिखाई हुई,सपना कलेक्टर बनने का था। लेकिन उनकी नसीब में सत्ता सुख था। पंजाब से एक शख्स कांशीराम वंचितों की आवाज को और विस्तार देने के लिए उत्तर प्रदेश आते हैं और मुलाकात मायावती से होती है। मायावती से कुछ देर की गुफ्तगू के बाद वो पूछते हैं कि तुम क्या बनना चाहती हो जवाब मिलता है कलेक्टर। वो कुछ देर तक शांत रहते हैं और कहते हैं कि अगर तुम्हारे सामने 100 कलेक्टर सिर झुकाएं रहें तो कैसा रहेगा। वो लड़की कहती है कि यह कहां संभव है लेकिन वो शख्स कहते हैं कि सबकुछ संभव है। तुम्हें वो करना होगा जो मैं कहता हूं और इस तरह से मायावती सियासी सड़क पर चल पड़ती हैं।
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सियासत की राह आसान कहां
सियासत की राह इतनी आसान नहीं होती। अगर सपना सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने का हो तो संघर्ष का सफर और लंबा हो जाता है। लेकिन इसके साथ एक बात और है कि अगर पथ प्रदर्शक जुनून वाला हो तो मकसद को हासिल भी किया जा सकता है।1980 के बाद यूपी की सियासत एक अलग गाथा लिखने के लिए तैयार थी। देश में धीरे धीरे कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनने लगा था और उसका फायदा वी पी सिंह ने उठाया और सत्ता पर काबिज हुए। कहते हैं कि सत्ता बचाए रखने के लिए तरह तरह के दांवपेंच का इस्तेमाल करना पड़ता है।
मंडल कमीशन ने दी उम्मीद
वी पी सिंह की सरकार को जब चौधरी देवीलाल से चुनौती मिलने लगी तो उसका मुकाबला करने के लिए उन्होंने बंद बोतल से उस जिन्न को निकाला जिसे दशकों पहले कैद कर दिया गया था। उस जिन्न का नाम था मंडल कमीशन। मंडल कमीशन लागू होने के बाद शर्तों पर समर्थन पा रही वी पी सिंह सरकार को बाहर से समर्थन दे रही बीजेपी ने बैसाखी खींच ली और सरकार गिर गई। लेकिन मंडल कमीशन की रोशनी में मायावती, मुलायम समेत दलित, वंचित समाज के कई चेहरों को खुद के लिए उम्मीद जगी।
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इस तरह मिली सत्ता
1993 का वो साल था जब सपा और बसपा की संयुक्त ताकत के सामने कमंडल की लहर पर सवार बीजेपी की नाव डूब गई। एसपी और बीएसपी यूपी की सत्ता पर काबिज थीं और सूबे की मुखिया मायावती थीं। हालांकि आपसी रस्साकसी में उनकी सरकार लंबे समय तक नहीं चल सकी। लेकिन कुर्सी का मोह ही कुछ ऐसा होता है कि अपने हिसाब से सिद्धांत गढ़ नेता अपने फैसलों को जायज करार देते हैं। मायावती ने बीजेपी के समर्थन से सरकार बनाईं। लेकिन वैचारिक धरातल पर सामंजस्य ना बैठने की वजह से सरकार गिर गई।
मायावती सरकार में नहीं थीं। लेकिन राजनीति की धार कब किसके साथ हो पता कहां चलता। दलित समाज के नारे में उन्होंने बदलाव कर सर्वसमाज का नारा दिया और 2007 में पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने में कामयाब हुईं। पूरे पांच साल तक उनकी सरकार ने राज किया। लेकिन 2012 में उनसे समाजवादी पार्टी ने सत्ता छीन ली। सत्ता की लड़ाई एक बार फिर है और बीएसपी अपने सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है। लेकिन राजनीति में उम्मीद एक ऐसा शब्द है जिसे नेता अपनी अंतिम सांस तक नाउम्मीद नहीं होते। मायावती को यकीन है कि एक बार फिर उनकी पार्टी यूपी की सत्ता पर काबिज होने में कामयाब होगी।
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