आम चुनाव 2024 अभी दूर है। लेकिन दिल्ली की तरफ जाने वाली सड़क पर सभी राजनीतिक दल सवारी कर रहे हैं। अगस्त के महीने में बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने जब दोबारा सीएम पद की शपथ ली तो विपक्ष के कई दलों में जान आ गई। उनमें से एक उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी है। लखनऊ में समाजवादी पार्टी के दफ्तर के बाहर लगे पोस्टर पर लिखा है यूपी और बिहार..गयी मोदी सरकार। इस पोस्टर पर आईपी सिंह का नाम लिखा है जो समाजवादी पार्टी के नेता हैं हालांकि ये पहले बीजेपी के हिस्सा हुआ करते थे। इन सबके बीच सवाल यह है कि यूपी- बिहार फतह करने से क्या दिल्ली में सत्ता बदल जाएगी। इसरे लिए यूपी और बिहार की सीटों की संख्या और सामाजिक समीकरणों को समझने की जरूरत है।
यूपी-बिहार हर एक दल के लिए अहम
यूपी और बिहार दोनों जगह मिलाकर लोकसभा की 120 सीटें हैं। यदि कुल 542 सीटों के आधार पर आंकलन करें तो यह संख्या करीब 24 फीसद है। अब बात करते हैं कि 2019 के नतीजों की। 2019 के नतीजों के मुताबिक करीब 90 सीटों पर बीजेपी का कब्जा है। यानी कि 85 फीसद सीट बीजेपी के कब्जे में हैं। अगर समाजवादी पार्टी के पोस्टर को सच में तब्दील होता हुआ माना जाए तो कम से 90 सीटें उनके खाते में जानी चाहिए और इस तरह से बीजेपी की कुल सीट संख्या 210 के आस पास पहुंच जाएगी। अब यदि ऐसा संभव होता है तो निश्चित तौर पर बीजेपी के सत्ता से बाहर होने की संभावना ज्यादा होगी। लेकिन क्या यह अर्थमेटिक जमीन पर उतारने में गैर बीजेपी दल कामयाब हो पाएंगे।
क्या कहते हैं जानकार
जानकारों का कहना है कि राजनीतिक फिजां में बदलाव कभी भी हो सकता है। कोई भी ट्रिगर प्वाइंट किसी दल के लिए खुशी और किसी के लिए रूदन ला सकता है। सवाल यह है कि बिहार में ताजा बदलाव से अखिलेश यादव को खुश होने की क्या कोई वजह है। अगर आप यूपी के चुनाव को देखें तो 2017 का विधानसभा चुनाव बड़ा उदाहरण है। सामाजिक समीकरणों को दुरुस्त करने के लिए सपा और बसपा एक साथ आए नतीजा हर किसी ने देखा। 2019 के चुनाव का नतीजा सबके सामने है। लेकिन उससे भी बड़ा उदाहरण 2022 विधानसभा का है। किसान आंदोलन, जाट समाज की नाराजगी ये सब ऐसे मुद्दे थे जिसकी वजह से कयास लगाए जा रहे थे कि बीजेपी को बड़ा नुकसान होगा। ये बात सच है कि बीजेपी की सीटों की संख्या में कमी आई। लेकिन उन सीटों को लोकसभा के नजरिए से देखा जाए तो उस जटिल परिस्थिति में बीजेपी के खाते में 60 सीट जा रही थी। यहां पर यह ध्यान देने वाली बात है कि चुनाव लोकसभा की जगह विधानसभा का हो रहा था।
अब बात करते हैं बिहार की यह बात सच है कि जेडीयू और आरजेडी के साथ आने की वजह से सामाजिक समीकरण नीतीश कुमार के पक्ष में है। लेकिन सवाल यह है कि अगर पशुपति पारस और चिराग पासवान का धड़ा एक साथ आता है तो विपक्ष की मुहिम को धक्का लगेगा। राजनीति हमेशा से परसेप्शन की लड़ाई पर आधारित रहा है। सभी समीकरणों के बनने के बाद भी जो धड़ा या नेता अपनी बात को जनता तक पहुंचा पाने में कामयाब होगा जीत उसकी होगी।
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