लेखकीय व्‍यक्तित्‍व के भी धनी हैं कैलाश सत्‍यार्थी, आज ही के दिन मिला था शांति का नोबेल पुरस्‍कार

kailash Satyarthi :सत्‍यार्थी का लेखकीय व्‍यक्तित्‍व कॉलेज के दिनों में उभरकर सामने आता है। उसी दौरान उन्‍होंने कविताएं लिखनी शुरू की थी। उनकी कुछ कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुईं।

Nobel Peace Prize awardee kailash satyarthi is also an author
कैलाश सत्यार्थी। 

पंकज चौधरी। नोबेल शांति पुरस्‍कार से सम्‍मानित कैलाश सत्‍यार्थी की ख्‍याति एक बाल अधिकार कार्यकर्ता के रूप में है। उन्‍होंने अपने संगठन ‘बचपन बचाओ आंदोलन’के बैनर तले 1,00,000 से अधिक बच्‍चों को गुलामी की बेड़ियों से मुक्‍त किया है। अभी तक सत्‍यार्थी का यही पक्ष मुखरता से उभरकर लोगों के सामने आया है। लेकिन बाल अधिकार कार्यकर्ता और समाजसेवी के अतिरिक्‍त उनके व्‍यक्तित्‍व की एक और विशिष्‍टता है, जो लोगों के सामने अभी तक उस तरह से सामने नहीं आ पाई है जिस तरह उसे आना चाहिए। सत्‍यार्थी एक कवि, गद्यकार, विचारक, दार्शनिक और वक्‍ता भी हैं जो उनके बहुमुखी होने का परिचय देते हैं।

सत्‍यार्थी का लेखकीय व्‍यक्तित्‍व कॉलेज के दिनों में उभरकर सामने आता है। उसी दौरान उन्‍होंने कविताएं लिखनी शुरू की थी। उनकी कुछ कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुईं। वर्ष 1974 में जयप्रकाश नारायण के सम्‍पूर्ण क्रांति आंदोलन का जब वे हिस्‍सा बने तब उनकी कविताओं में देश की अराजक व्‍यवस्‍था के खिलाफ एक युवा का गुस्‍सा, आक्रोश और बेचैनी खुलकर प्रकट होने लगी। कुछेक आलोचकों-विश्‍लेषकों  ने उनकी कविताओं की ‘अग्निधर्मा कविता’के रूप में व्‍याख्‍या की और उन्‍हें एक संभावनाशील कवि के रूप में रेखांकित किया-‘उन्हें मुझसे शिकायत है कि/ मेरी कविता में खून और आग के अलावा कोई भी/बात नहीं/वे ठीक कहते हैं/मगर मैं कैसे बताऊं कि जब कुछ भी देखता हूं/ आंखों के सफ़ेद पर्दे लाल हो उठते हैं/और जब कुछ भी लिखता हूं/समूचे शरीर की गर्मी/ हाथों में होती है।’

सत्‍यार्थी उन्‍हीं दिनों दिल्‍ली से निकलने वाली हिंदी की प्रमुख  पत्रिका ‘जनज्ञान’में नियमित रूप से आलेख लिखा करते थे। जनज्ञान में छपे उनके आलेखों की एक ओर यदि प्रशंसा होती, तो वहीं दूसरी ओर अनुदारवादियों, कट्टरपंथियों और पोंगापंथियों को वे नहीं सुहाते। उसी दौरान उनका एक आलेख अत्‍यंत विवादास्‍पद हो गया। जिसने जनज्ञान का सर्कुलेशन तो बढ़ाया ही, साथ ही सत्‍यार्थी को भी प्रसिद्ध कर दिया। सत्‍यार्थी की प्रसिद्धि की धाक कुछ इस तरह जमी कि पत्रिका की सहायक संपादक सुमेधा कैलाश भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहीं और बाद में उनकी जीवनसंगिनी बनीं।

कैलाश सत्‍यार्थी ने बाल मजदूरों को मुक्‍त कराने का जब अभियान छेड़ा और ‘संघर्ष जारी है’नामक पत्रिका निकाली, तब से उनका पूरा ध्‍यान बाल अधिकारों पर केंद्रित हो गया। उनकी कविताएं और पत्रिका में प्रकाशित होने वाले उनके विचारोत्‍तेजक सम्‍पादकीय पूरी तरह बाल तथा बंधुआ मजदूरों की मुक्ति और उनके अधिकारों पर केंद्रित हो गए। एक बाल अधिकार कार्यकर्ता होने के नाते वे बाल मजदूरों की मुक्ति और उनके अधिकारों का अपनी कविताओं में आह्वान करते हैं। उनकी कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे उनमें बाल मजदूरों के दुख-दैन्‍य का रोना नहीं रोते। कोई विलाप नहीं करते, बल्कि बाल मजदूरों में ओज और हुंकार भरने का काम करते हैं।

सत्‍यार्थी की कविताएं इतनी ओजस्‍वी होती हैं कि खेतों-खलिहानों, ईंट-भट्ठों, कारखानों, कालीन उद्योगों में कराहते हजारों-लाखों बच्‍चे आजाद बचपन की तलाश में सड़क से संसद तक निकल पड़ते हैं। शोषित-पीडि़त बचपन सपने संजोने लगते हैं। अपनी नष्‍ट इच्‍छाओं और आकांक्षाओं को पुनर्जीवित करने लगते हैं। इस तरह से हम कह सकते हैं कि लिबरेशन मुक्ति (मुक्ति) को अर्थ देती हैं उनकी कविताएं। मुक्ति का अहसास हैं उनकी कविताएं-‘फौलाद हो चुके हैं तुम्हारे पांव/ और हाथ पहाड़ों की चोटियां/ देखो कि तुम्हारा दिल समंदर बन गया है/ आंखें, चांद और सूरज/ आसमान से ऊंचा हो गया है/ तुम्हारा मस्तक…।’  

सत्‍यार्थी ने बाल अधिकारों के लिए जब भी कोई बड़ा आंदोलन या संघर्ष खड़ा किया है, तो उन्‍होंने अपने साथियों को ऊर्जस्वित और प्रेरित करने के लिए ऐसी ही कविताओं की रचना की। उनकी रचनाओं से आंदोलनकारियों का जोश और जज्‍बा आसमान छूने लगता है। विश्‍व इतिहास गवाह है कि कोई भी मुक्ति संग्राम या आंदोलन तब तक अपने लक्ष्‍य की ओर अग्रसर नहीं हुआ है जब तक उसमें ऐसे क्रांतिगीतों की रचना नहीं हुई है।

सत्‍यार्थी के कवि और उनकी कविताओं का सतत विकास होता रहा है। वे इसलिए समकालीन हैं क्‍योंकि समय और समाज का यथार्थ उनके यहां दर्ज है। पिछले साल की शुरुआत में उन्‍होंने 3-4 ऐसी कविताएं लिखीं जो सोशल मीडिया पर वायरल हुईं। ‘मरेगा नहीं अभिमन्‍यु इस बार’और ‘इंद्रधनुष को सतरंगा ही रहने दो’जैसी कविताओं के जरिए उन्‍होंने सामाजिक और साम्‍प्रदायिक सद्भाव को बनाए रखने की पुरजोर अपील की।  वहीं ‘तेरा बेटा मरा नहीं है’और ‘बिन मौसम के आया पतझड़’के जरिए उन्‍होंने कोरोना काल के दौरान हिन्‍दुस्‍तान की सड़कों की खाक छानते दिहाड़ी मजदूरों की व्‍यथा और दारुण दशा का मार्मिक चित्रण किया है।

सत्‍यार्थी 4 दशकों से कविताएं लिख रहे हैं। प्रकृति और जीवन की तरह उनकी कविताएं विविधताओं से भरी हुई हैं। बाल अधिकार, साम्‍प्रदायिक सदभाव, सामाजिक न्‍याय, महिला सशक्तिकरण, किसान-मजदूर, कर्मकांड-अंधविश्‍वास-सड़ी गली परंपरा पर हमला, प्रेम, प्रकृति, दर्शन उनकी कविताओं की मुख्‍य प्रवृत्तियां हैं। करुणा और नैतिक बल उनकी कविताओं के बीज तत्‍व हैं। यही कारण है कि हिंदी और देश के  अग्रणी प्रकाशन गृहों में एक ‘वाणी प्रकाशन’ उनकी कविताओं को संग्रह का रूप देने में लगा हुआ है, जो शीघ्र ही हमारे सामने होगा।

सत्‍यार्थी की पिछले साल प्रकाशित पुस्‍तक ‘कोविड-19 सभ्‍यता का संकट और समाधान’वर्तमान में भी चर्चा में है। इस पुस्‍तक के माध्‍यम से सत्‍यार्थी एक विचारक और दार्शनिक के रूप में उभरकर हमारे सामने आते हैं। पुस्‍तक में व्‍यक्‍त अपने विचारों से उन्‍होंने यह साबित करने की कोशिश की है कि कोविड-19 कोई आर्थिक या मेडिकल सायंस का संकट नहीं है बल्कि यह एक सभ्‍यता का संकट है। जिसका समाधान तब तक संभव नहीं है जब तक कि मानव जाति करुणा, कृतज्ञता, उत्‍तरदायित्‍व और सहिष्‍णुता जैसे चिरंतन मानवीय मूल्‍यों को आत्‍मसात नहीं कर लेती। विद्वानों और विश्‍लेषकों ने अंधेरे में उजाला दिखाती पुस्‍तक के रूप में इसका वर्णन किया है और अगला खंड भी लिखने की मांग की है। दूसरी ओर पुस्‍तक की महत्‍ता को देखते हुए अंग्रेजी सहित दूसरी भाषाओं में भी इसके अनुवाद की मांग होने लगी है।

सत्‍यार्थी ने समय-समय पर अपने आलेखों और कहानियों के जरिए मुक्‍त बाल मजदूरों की अनकही व्‍यथाओं और कथाओं का भी सजीव चित्रण किया है। उन्‍होंने उन मुक्‍त बाल मजदूरों पर लिखने का काम किया है, जिनको उन्‍होंने बाल मजदूरी और शोषण के दलदल से मुक्‍त कराया है। उनका पुनर्वास किया है और वे अपने परिवार, समाज और राष्‍ट्र के उम्‍मीद बने हैं। सत्‍यार्थी की कलम से निकले ये आलेख और कहानियां गंभीर समाजशास्‍त्रीय अध्‍ययन हैं। इनके जरिए एक अनदेखा, अनसुना और अनकहा भारत हमारे सामने प्रकट होता है। ये कहानियां भारतीय समाज, संस्‍कृति, परंपरा, धर्मशास्‍त्र, इतिहास, जाति व्‍यवस्‍था, राज्‍य, सरकार और शासन-प्रशासन को प्रश्‍नांकित करती हैं। महान इतालवी दार्शनिक ग्राम्‍शी के शब्‍दों में सत्‍यार्थी का लेखन सबार्ल्‍टन स्‍टडीज (निम्‍नवर्णीय, निम्‍नवर्गीय अध्‍ययन) है। जिसका नए ज्ञान-विज्ञान की खोज के रूप में दुनियाभर में विश्‍लेषण किया जा रहा है। भारत का आदिवासी, दलित, बहुजन साहित्‍य इसके ज्‍वलंत उदाहरण हैं। सही मायने में मुख्‍यधारा का साहित्‍य वही है, जिसमें बहुसंख्‍यक जनता की आत्‍मा की पुकार सुनाई देती है।

उनके आलेखों और विचारों की कई पुस्‍तकें प्रकाशित हैं। ‘आजाद बचपन’ और ‘बदलाव के बोल’ उनकी ऐसी ही अन्‍य उल्‍लेखनीय पुस्‍तकें हैं। उनकी ये पुस्‍तकें ना केवल बाल मजदूरी के उन्‍मूलन और बाल अधिकारों पर समग्रता से प्रकाश डालती हैं बल्कि जीवन के अन्‍यान्‍य मोड़ों और प्रसंगों में भी हमारा मार्गदर्शन करते चलती हैं। सत्‍यार्थी एक ऐसे लेखक हैं जिनका लेखन उनके सरोकार या पेशे से सम्‍बद्ध है। भारत या विश्‍व साहित्‍य में मुख्‍यधारा का लेखक होने का दर्जा उन्‍हीं को हासिल है जिनके यहां कल्‍पना की उड़ानें कम और यथार्थ बेशुमार हैं। सत्‍यार्थी इस दृष्टिकोण से एक यथार्थवादी लेखक ठहरते हैं।

(लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं, टाइ्स नाउ नवभारत इन विचारों से इत्तेफाक नहीं रखता।)

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