नई दिल्ली : आज से करीब तीन महीने पहले अफगानिस्तान में जब तालिबान सत्ता में आया तो पाकिस्तान की तरफ से प्रोपगैंड फैलाया गया कि इस देश में भारत के हितों को जबर्दस्त झटका लगा है और उसके तीन अरब के निवेश खटाई में पड़ गए। इसके बाद अफगानिस्तान में उपजी ताजा स्थितियों पर भारत सीधे रूप से बड़ी प्रतिक्रिया देने और अपनी आगे की रणनीति जाहिर करने से बचता रहा। बीच-बीच में भारत की तरफ से यह जरूर दर्शाया गया कि वह अफगानिस्तान में मानवीय संकट को लेकर चिंतित है।
नई दिल्ली की ओर से उम्मीद जताई गई कि इस संकटग्रस्त देश की जमीन का इस्तेमाल आतंकवादी गतिविधियों और आतंकियों के संरक्षण के लिए नहीं होगा। भारत एक तरह से 'इंतजार करो और देखो' की रणनीति पर काम करता रहा है। अब तीन महीने गुजर जाने के बाद भारत अफगानिस्तान को लेकर अपनी रणनीति पर आगे बढ़ रहा है। दिल्ली में 10 और 11 नवंबर को अफगानिस्तान पर 'क्षेत्रीय सुरक्षा वार्ता' सम्मेलन इसी रणनीति की एक अहम कड़ी है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) की अगुवाई में होने वाली बैठक में काबिल को लेकर एक ठोस रणनीति की रूपरेखा तैयार हो सकती है। डोभाल की अध्यक्षता में होने वाले संवाद में रूस, ईरान के अलावा मध्य एशिया के पांच देशों कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान के शीर्ष सुरक्षा अधिकारी भी शामिल होंगे।
मीडिया रिपोर्टों में सूत्रों के हवाले से कहा जा रहा है कि इन आठ देशों के बीच अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद की सुरक्षा जटिलताओं पर चर्चा होगी और बातचीत मुख्यत: चुनौतियों से निपटने के लिए व्यावहारिक चीजों पर सहयोग करने पर केंद्रित रहेगी। इस वार्ता में शामिल हो रहे देशों में से किसी ने भी अभी तक तालिबान को मान्यता नहीं दी है और अफगानिस्तान की स्थिति पर उन सभी की चिंताएं समान हैं। जाहिर है कि अफगानिस्तान के ताजा हालात से मध्य पूर्व के इन पड़ोसी देशों के हित गहराई से जुड़े हैं। अफगानिस्तान के निर्माण में भारत की भूमिका अहम रही है। क्षेत्रीय सुरक्षा एवं राष्ट्रीय हित के लिहाज से भारत के लिए अफगानिस्तान काफी अहमियत रखता है। बीते तीन महीनों में भारत ने काबुल की स्थितियों का बारीकी से आंकलन किया होगा और अब जाकर उसने तय किया होगा कि उसे किस रणनीति पर आगे बढ़ना है।
अफगानिस्तान में भारत की मजबूती शुरू से ही पाकिस्तान की आंख में खटकती रही है। वह काबुल में भारतीय हितों को नुकसान पहुंचाने एवं उसे कमजोर करने के लिए लगातार कुचक्र रचता आया है। वह तालिबान को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से मदद पहुंचाता रहा है। तो वहीं चीन की भी मंशा अफगानिस्तान में अपना प्रभाव एवं दखल बढ़ाने की रही है। पाकिस्तान और चीन कभी नहीं चाहेंगे कि अफगानिस्तान में भारत की स्थिति मजबूत हो और वह रणनीतिक रूप से प्रभावी हो। एनएसए डोभाल के नेतृत्व में हो रही इस बैठक में शामिल न होना उनके इसी रवैया को बताता है।
इस बैठक की सबसे अहम बात यह है कि मध्य एशिया एवं अफगानिस्तान के पड़ोसी देश यह चाहते हैं कि अफगानिस्तान संकट का हल कहीं और से नहीं बल्कि इसी क्षेत्र से निकले। इस दिशा में भारत ने कदम बढ़ा दिया है। इस बैठक में एनएसए डोभाल अफगानिस्तान की चुनौतियों से निपटने के लिए कोई खास रणनीति पेश कर सकते हैं। इसलिए अफगानिस्तान पर होने वाली बैठक काफी अहम है।
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