गजब है सच को सच कहते नहीं वो
क़ुरान—ओ—उपनिषद् खोले हुए हैं
सच कहने और अपनी भावनाओं को जस के तस व्यक्त करना दुस्साहसी और अपने विचारों के लिए सरकार की आंख में आंख डालकर अपनी बात कह देने का नाम था दुष्यंत कुमार। सामंती परिवार में जन्में लेकिन तेवर बागी और आवाज आम लोगों की रही। दुष्यंत कुमार के जीवन और लेखनी पर बहुत कुछ लिखा, कहा और सुना जा चुका है। लेकिन उनके दुस्साहसिक पक्ष के बारे में जानना भी जरूरी है। इसलिए जरूरी है क्योंकि वो अपने विचारों को लेकर इतने प्रतिबद्ध थे कि कई मौकों पर सरकारी मुलाजिम होने के बावजूद सरकार के खिलाफ लिख देते थे। अपनी नौकरी तक दांव पर लगा बैठते थे। हम दो किस्सों का जिक्र करेंगे।
मार्च का महीना था और साल था 1966।
बस्तर रियासत के आखिरी शासक प्रवीर चंद्र। प्रवीर चंद्र की भी हमेशा सरकार से ठनी रही लेकिन बस्तर के लोगों के बीच प्रसिद्धी हमेशा बनी रही। कई आंदोलन किए और चुनावों में अपने समर्थित लोगों को जीत भी दिलाई। कई ऐसे काम किए जो राजधानी भोपाल में बैठी सरकार को फूटी आंख न सुहा रही थी। ऐसे में आया 25 मार्च 1966 जब एक गोलीकांड में बस्तर के राजा प्रवीर चंद्र मारे गए। इसका विरोध हुआ। आम लोगों से लेकर हर बागी स्वभाव के लोगों ने आवाज उठाई। यहीं दुष्यंत ने भी अपनी कलम उठायी और लिख दी 'ईश्वर को सूली'।
इस कविता के छपने का भी एक किस्सा है। उन दिनों इलाहाबाद जो आज प्रयागराज है, से एक पत्रिका निकला करती थी, कल्पना नाम से। इसमें प्रगतिशील लेखक और विचारक लिखा और छपा करते थे। दुष्यंत ने भी अपनी कविता भेजी, 'ईश्वर को सूली' नाम से। कविता जब संपादक ने पढ़ी तो वो छापने से हिचकिचाए और दुष्यंत कुमार को सलाह दी कि आप सरकारी नौकरी वाले हैं, आपकी नौकरी पर खतरा आ जाएगा मत छपवाएं, लेकिन दुष्यंत कहां मानने वाले थे। जैसे उनके विचार पक्के वैसी उनकी जिद पक्की। कविता छपवाई। पत्रिका निकली और शुरू हो गया हंगामा। मध्यप्रदेश विधानसभा में हंगामा खड़ा हो गया। आरोप लगने लगे कि सरकार ने राजा प्रवीर चंद्र की धोखे से हत्या करवाई है।
उन दिनों मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे द्वारका प्रसाद मिश्रा ने दुष्यंत कुमार को तलब किया। दुष्यंत सीएम से मिलने पहुंचे। सीएम ने विवादित कविता पर जवाब मांगा। तो दुष्यंत कहते हैं कि सीएम साहब आप भी तो कवि हैं।।। मैं अपनी भावनाओं को रोक नहीं पाया था। इतना कहने भर के बाद सीएम डीपी मिश्रा ने दुष्यंत से कहा सावधान रहिए और जाइए आगे से ऐसा न करिए।
ऐसा ही एक और किस्सा है आपातकाल से जुड़ा। दरअसल यही वो दौर था जिसने दुष्यंत को सबसे ज्यादा आम लोगों से जोड़ा। विचारिक एकता होने के बावजूद दुष्यंत कुमार आपातकाल के विरोध में खड़े थे। उनके साथ के कई प्रगतिशील लेखक, कवि, जनवादी लोग आपातकाल के समर्थन में थे। लेकिन दुष्यंत ने कभी खुद को किसी पार्टी का गुलाम नहीं समझा।
हुआ यूं कि आपातकाल के दौरान देश के राष्ट्रपति रहे फखरुद्दीन अली अहमद लंदन गए थे। दुष्यंत की ख्याति लंदन तक पहुंच चुकी थी। वहां भी लोगों ने फखरुद्दीन अली अहमद से पूछा कि आपके यहां एक कवि हैं दुष्यंत कुमार। चर्चा हो रही थी। इसी दौरान दुष्यंत ने एक गजल लिखी 'एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है'। इसके एक शेर ने बवाल पैदा किया। शेर था
एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या यों कहो
इस अंधेरी कोठरी में एक रौशनदान है
दुष्यंत कुमार के काव्यखंडों का संग्रह करने वाले और दुष्यंत के साथ काम कर चुके विजय बहादुर सिंह बताते हैं कि दुष्यंत ने ये जेपी के लिए लिखा था। जेपी यानी जय प्रकाश नारायण जो आपातकाल के खिलाफ सबसे अग्रणि भूमिका निभा रहे थे। इस गजल पर बवाल इतना पैदा हुआ कि दिल्ली से इनक्वायरी आ गई। विजय बहादुर सिंह, दुष्यंत के ऑफिस पहुंचे देखा वो काफी उदास से बैठे हैं। विजय बहादुर के पहुंचते ही उन्होंने बाहर चाय पीने चलने को कहा।।अपने चपरासी से तीन कटिंग चाय मंगवाई।।और अपनी सिगरेट जलाने के लिए माचिस मांगी। तीन चाय आई और एक चपरासी ने उठा ली। चपरासी से मांगकर सिगरेट जलाते हुए बात करने लगे तो विजय बहादुर सिंह ने मसला पूछा। दुष्यंत ने कहा कि दिल्ली से इनक्वायरी आई है। मैंने भी कह दिया है कि वो गजल विनोबा भावे के लिए लिखी गई है। ये किस्सा बताते हुए विजय बहादुर खुद हंस पड़े और कहा कि दुष्यंत कुमार लड़ना भी जानते थे और लड़ने के तरीके भी जानते थे। दरअसल विनोबा भावे ने आपातकाल को अनुशासन पर्व बताया था।
अब बात आती है कि दुष्यंत कुमार इतने पॉपुलर कैसे हुए और ऐसा क्या था कि वो अपने समकक्षों से अलग रहे फिर दूसरा दुष्यंत न बन सका कोई।
ऐसा नहीं था कि उस दौर में सिर्फ दुष्यंत ही बेहतरीन हिंदी लिख रहे थे या फिर कविता के जानकारों के मुताबिक मीटर पर लिख रहे थे। धर्मवीर भारती पहले ही अंधायुग लिख चुके थे और उसी पत्रिका कल्पना में 'मुनादी' भी लिखी। दुष्यंत सबसे अलग अपनी भावनाओं को जस की तस परोसने को लेकर प्रसिद्ध हुए। उन्होंने क्लिष्ट हिंदी या वजनदार उर्दू को नहीं बल्कि हिंदुस्तानी जुबान में अपनी साधना की। यही कारण रहा कि जब उन्होंने कहा कि 'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो, ये कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं' या 'मत कहो, आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है'
दुष्यंत ने जो कहा वो आम लोगों की जुबान थी। दुष्यंत ने देश के दबे-कुचलों के विद्रोह को आवाज दी। इसीलिए जब वो कहते हैं
कहां तो तय था चिरागा हर एक घर के लिए
कहां चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए
या
इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है
इस समझने के लिए किसी को हाथ में डिक्शनरी नहीं लेनी पड़ेगी। पढ़ने या सुनने वाला भाव और मौके को समझेगा इससे खुद को जोड़ पाएगा।
आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
घर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
दुष्यंत के लिखी हुई कितनी ही पंक्तियां देश के आंदोलनों और संघर्षों का साथ निभाती रही हैं और निभाती रहेंगी। जब भी कोई मजलूम मुट्ठी भींचे चीखते हुए निजाम से टकराने जाएगा तो उसके कंठों से वही निकलेगा जो कभी दुष्यंत की धधकती हुई कलमों से निकला था।
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