Agneepath scheme protest: नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व काल के 8 सालों में देश में कई बड़े सुधार हुए हैं लेकिन हर बड़े सुधार को अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ा है। फिर चाहे जीएसटी हो, कृषि कानून हो या सैनिकों की भर्ती के लिए अग्निपथ योजना। हर बार सरकार को बड़े विरोध का सामना करना पड़ा है। कई बार सरकार को फैसले वापस लेने पड़े तो कई बार सरकार सुधारों को लागू करने में कामयाब रही। नोटबंदी और जीएसटी पर सरकार ने विपक्ष की एक नहीं सुनी थी, लेकिन पिछले साल किसानों के दबाव में सरकार को कृषि कानून वापस लेना पड़ा।
कृषि कानून पर सरकार को झुकाने में मिली कामयाबी के बाद विपक्ष को लगने लगा है कि सरकार को दबाया जा सकता है। इसी वजह से अग्निपथ योजना का जमकर विरोध हो रहा है लेकिन इस बार सरकार ने भी साफ कर दिया है कि अग्निपथ योजना वापस नहीं होगी। सरकार ने अपने सुधारों पर अड़ी है तो विपक्ष और देश कुछ संगठन अपनी मांगों पर अड़े हैं लेकिन सवाल ये है कि क्या आजादी के 75 साल भी बाद देश सुधारों के लिए तैयार नहीं है ।
सुधारों की राजनीति बनाम सुविधा की राजनीति ?
जब भी कोई दल सत्ता में होता है तो वो सुधारों को जरूरी बताता है। यूपीए-1 और यूपीए-2 में मनमोहन सिंह की सरकार में भी कई जरूरी आर्थिक सुधार किए गए। गठबंधन सरकार की मजबूरियों के चलते मनमोहन सरकार कई काम नहीं कर पाई। बीजेपी के दबाव में मनमोहन सरकार को रिटेल में एफडीआई लाने के अपने कदम को वापस खींचना पड़ा था। जबकि सत्ता में आने के बाद बीजेपी उसी एफडीआई को लेकर आई, जिसका वो विरोध करती रही थी। एक दौर में बीजेपी ने जीएसटी का भी विरोध किया था लेकिन सरकार में आने के बाद उन्हीं की सरकार ने कुछ बदलावों के साथ जीएसटी को लागू कर दिया। कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में किसानों को सरकारी मंडियों से मुक्त करने की बात कही थी लेकिन जब ऐसा ही कानून बीजेपी लेकर आई तो कांग्रेस ने विरोध कर दिया। इन उदाहरणों से ये तो समझा जा सकता है कि सुधारों की राजनीति पर सुविधा की राजनीति हावी रहती है।
बड़े सुधारों के पक्ष में हैं प्रधानमंत्री मोदी
अग्निपथ योजना के विरोध में पूरे देश में हिंसा हुई, राजनीति भी हो रही है, लोगों को भड़काया जा रहा है, ये कहा जा रहा है कि इसका हाल भी कृषि कानून जैसा होगा, मोदी सरकार को झुकना होगा। इन आशंकाओं के बीच पीएम मोदी ने देश को सुधारों के फायदे बताए और कहा कि, ''कई फैसले, कई सुधार, तात्कालिक रूप से अप्रिय लग सकते हैं, लेकिन समय के साथ उन सुधारों का लाभ आज देश अनुभव करता है। सुधारों का रास्ता ही हमें नए लक्ष्यों, नए संकल्पों की तरफ ले जाता है। हमने स्पेस और डिफेंस जैसे हर उस सेक्टर को युवाओं के लिए खोल दिया है, जिनमें दशकों तक सिर्फ सरकार का एकाधिकार था''। प्रधानमंत्री के इस बयान से इतना तो साफ है कि अग्निपथ योजना पर सरकार यू-टर्न नहीं लेगी। सेना में सुधारों पर पीछे हटने के कोई संकेत नहीं मिल रहे हैं।
भारतीय सेना में बदलाव जरूरी क्यों ?
जो लोग अग्निपथ योजना का विरोध कर रहे हैं उन्हें ये समझना होगा कि ये पूरी कवायद अचानक से नहीं हुई है। इसके बारे में 23 साल पहले ही कारगिल रिव्यू कमेटी ने सिफारिश कर दी थी। 1999 के कारगिल युद्ध के तीन दिन बाद कारगिल रिव्यू कमेटी बनाई गई थी। इस कमेटी की रिपोर्ट में कई बड़ी बातें कही गई थीं। जिसमें सबसे ज्यादा जोर जवानों की उम्र को लेकर थी। कमेटी ने सिफारिश में सेना की औसत उम्र 32 साल से 26 साल करने और सेना को हमेशा यंग और फिट रखने पर जोर दिया था। इसके अलावा सेना में 17 साल की बजाय 7 या 10 साल की सर्विस करने की सिफारिश की गई थी। सेना में 10 साल की सर्विस के बाद अफसरों और जवानों को अर्धसैनिक बलों में नियुक्त करने की योजना बनाने के लिए कहा गया था। इस रिपोर्ट में पेंशन पर खर्च कम करके आधुनिकीकरण पर जोर देने की सिफारिश की गई थी। रिपोर्ट के मुताबिक 1960 के बाद से सेना का पेंशन बजट लगातार बढ़ा है। अब सरकार इस रिपोर्ट को ध्यान में रखकर काम कर रही है।
अग्निपथ योजना का विरोध क्यों ?
भारत में सेना में भर्ती सिर्फ देश सेवा नहीं बल्कि सरकारी नौकरी भी है। वो सरकारी नौकरी जिससे एक पूरा परिवार आर्थिक और सामाजिक रूप से मजबूत होता है। सेना में नौकरी से ना सिर्फ उन्हें अच्छा वेतन मिलता रहा है बल्कि समाज में मान सम्मान भी मिलता रहा है। अब अग्निपथ योजना में सेना में सेवा का मौका तो है लेकिन सामाजिक सुरक्षा बहुत कम है। ना जिंदगी भर की नौकरी है, ना रिटायरमेंट के बाद पेंशन है, ना मुफ्त अस्पताल है और ना ही अन्य सुविधाएं हैं जो अब तक एक सैनिक और उसके परिवार को मिलती रही है। इसलिए जब तक सेना में भर्ती को सरकारी नौकरी मान कर देखा जाएगा, ये समस्या बनी रहेगी। इसका विरोध ऐसी ही होता रहेगा।
'अग्निपथ' से विपक्ष क्या हासिल करना चाहता है ?
अग्निपथ योजना से विपक्ष वो हासिल करना चाहता है जो वो किसान आंदोलन में हासिल नहीं कर पाया। किसान आंदोलन के बाद केंद्र सरकार को कृषि कानून रद्द करने पड़े थे लेकिन विपक्ष इसका राजनीतिक फायदा नहीं उठा पाया। कृषि कानूनों की वापसी के तुरंत बाद 5 राज्यों में चुनाव हुए लेकिन 4 राज्यों में बीजेपी की जीत हुई। विपक्ष किसानों के गुस्से को वोट में बदलने में नाकाम रहा। इस बार विपक्ष की कोशिश है कि युवाओं के गुस्से को राष्ट्रव्यापी बनाया जाए और चुनाव के समय इसे वोटों में बदल जाए। इसकी कोशिश भी हो रही है लेकिन क्या बिखरा हुआ विपक्ष ये कर पाएगा। क्या विपक्ष के पास ऐसे नेता हैं कि जो सुधारों पर सरकार को घेरने की रणनीति बना पाए
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