नई दिल्ली : पंजाब में मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू की खींचतान के बीच कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने नवजोत सिंह सिद्धू को पंजाब कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया है। उनके साथ चार कार्यकारी अध्यक्षों की भी नियुक्ति की गई है, जिनमें संगत सिंह गिलजियां, सुखविंदर सिंह डैनी, पवन गोयल और कुलजीत सिंह नागरा शामिल हैं। यह नियुक्ति ऐसे समय में हुई है, जबकि आलाकमान लंबे समय तक इस पर असमंजस की स्थिति में नजर आ रहा था, जबकि कोशिशें मसले के लेकर किसी सर्वमान्य समझौते पर पहुंचने को लेकर भी थी।
तो क्या अब यह मान लिया जाना चाहिए कि पंजाब कांग्रेस में संकट का पटाक्षेप हो गया है? पंजाब में कांग्रेस के दो दिग्गज नेताओं- कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू की ओर से विगत कुछ समय में जो बयान आए हैं और इनके बीच बीते समय की कड़वाहट को देखते हुए यह साफ है कि राज्य में कांग्रेस की मुश्किलें अभी खत्म नहीं हुई हैं। बीजेपी छोड़ कांग्रेस का हाथ थामने वाले सिद्धू ने अमरिंदर से टकराव के बीच अपने बयानों से इसके संकेत दे दिए थे कि कि अगर प्रदेश कांग्रेस में उनकी भूमिका कमतर हुई तो वह आम आदमी पार्टी (आप) का दामन भी थाम सकते हैं।
आप, जो राज्य में एक नए सियासी विकल्प के तौर पर सामने आई है, पंजाब में 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में 20 सीटें जीतकर अपनी दमदार उपस्थिति का एहसास पहले ही करा चुकी है। पार्टी 2017 में पहली बार पंजाब विधानसभा के चुनाव में उतरी थी, जिसकी घोषणा उसने महज दो साल पहले 2015 में की थी। पंजाब में 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव में आप पूरे दमखम के साथ उतरने जा रही है और ऐसे में कांग्रेस के लिए यह और भी असहज स्थिति बन जाती कि उसके नेता व कार्यकर्ता उस पार्टी का रुख करें, जिसने दिल्ली की सत्ता से बेदखलकर कर विधानसभा में उसे शून्य तक पहुंचा दिया।
वहीं, सिद्धू को लेकर अमरिंदर सिंह की नाखुशी किसी से छिपी नहीं है, जिन्हें पंजाब में वह अपने लिए सियासी चुनौती के तौर पर देखते रहे हैं। कैप्टन ने जिस तरह से सोनिया गांधी को पत्र लिखकर पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर सिद्धू की संभावित नियुक्ति को लेकर नाराजगी जताई थी, उससे साफ हो गया था कि पंजाब के सीएम किसी तरह की नरमी बरतने के मूड में नहीं हैं। यह अलग बात है कि बाद में उन्होंने कहा कि कांग्रेस नेतृत्व जो भी फैसला लेगा, वह सभी को मान्य होगा। अब जब कांग्रेस नेतृत्व ने सिद्धू को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाने का फैसला लिया है, यह देखने वाली बात होगी कि कैप्टन अमरिंदर सिंह इस फैसले के साथ कितने सहज होते हैं।
कैप्टन और सिद्धू के बीच अब खुलकर सामने आ चुके टकराव की वजह तलाशें तो इसकी पृष्ठभूमि तभी से बनने लगी थी, जब पंजाब में 2017 में हुए विधानसभा चुनाव से ठीक पहले सिद्धू को कांग्रेस में शामिल किया गया था। अमरिंदर सिंह तब इसके पक्ष में नहीं थे और तब भी उन्होंने इसका विरोध किया था। यह अलग बात है कि उस वक्त कैप्टन का विरोध उतना मुखर नहीं था, जो अब देखने को मिला है।
सिद्धू जब बीजेपी छोड़ कांग्रेस में शामिल हुए थे तो इसमें गांधी परिवार का दखल स्पष्ट था। कांग्रेस आलाकमान के दबाव का ही नतीजा था कि 2017 के पंजाब विधानसभा चुनाव में जब कांग्रेस 117 में से 77 सीटें जीतकर सत्ता में आई तो कैप्टन को न चाहते हुए भी सिद्धू को कैबिनेट में शामिल करना पड़ा। अब एक बार फिर जब कांग्रेस की पंजाब इकाई में अंदरूनी कलह के बीच सिद्धू पंजाब कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बनाए गए हैं तो इसमें भी गांधी परिवार से उनकी नजदीकियों की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता।
अब जब सिद्धू को पंजाब कांग्रेस की कप्तानी हासिल हो गई है तो सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या अमरिंदर सिंह के साथ उनका टकराव खत्म होगा, जो पहले भी सिद्धू के कई बयानों, फैसलों से असहमति जता चुके हैं? याद रखिये कैप्टन ने तब भी खुलकर सिद्धू के फैसले पर नाखुशी जताई थी, जब उन्होंने इमरान खान को अपना दोस्त बताते हुए पाकिस्तान में प्रधानमंत्री के तौर पर उनके शपथ-ग्रहण समारोह में जाने का निर्णय लिया था। फिर पाकिस्तानी सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा से गले मिलने की सिद्धू की तस्वीर जब सामने आई तो कैप्टन ने खुलकर इसकी आलोचना की।
पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की अगुवाई वाली सरकार में कैबिनेट मंत्री रहते हुए भी सिद्धू की राह कोई आसान नहीं थी। सिद्धू के साथ-साथ पंजाब कांग्रेस के कई नेता हैं जो बादल परिवार के केबल टीवी कारोबार और भ्रष्टाचार को लेकर सवाल उठाते रहे हैं। लेकिन पंजाब की कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार में मंत्री रहते हुए सिद्धू ने जब इस दिशा में प्रयास किए तो उन्हें अपेक्षित समर्थन नहीं मिला, जबकि 2017 के विधानसभा चुनाव में यह सत्तारूढ़ अकाली दल-बीजेपी गठबंधन के खिलाफ एक अहम मुद्दा था और कांग्रेस ने सत्ता में आने पर कानून बनाने का वादा भी किया था।
कांग्रेस में शामिल होने के बाद से ही जहां पंजाब में सिद्धू के लिए मुश्किलों का दौर शुरू हो गया था, वहीं अमरिंदर सिंह इन वर्षों में पार्टी के एक मजबूत नेता के रूप में सामने आए। न केवल 2017 के विधानसभा चुनाव में शानदार जीत दर्ज कर 10 वर्षों बाद पंजाब की सत्ता में वापसी करते हुए कैप्टन ने प्रदेश कांग्रेस में अपनी अहमियत का एहसास कराया, बल्कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भी पंजाब में कांग्रेस के उम्दा प्रदर्शन ने उन्हें एक मजबूत नेता के रूप में स्थापित किया। ऐसे में जबकि देश के कई राज्यों में कांग्रेस सिमटती गई, पंजाब की 13 में से आठ लोकसभा सीटों पर पार्टी की जीत का श्रेय कैप्टन को ही गया और उनकी छवि बीजेपी के विजय रथ को रोकने वाले नेता की बनी।
इन सबके बीच सिद्धू पर कैप्टन के वार और तीखे हो चले थे। टकराव इस कदर बढ़ा कि सिद्धू को कैप्टन की कैबिनेट से इस्तीफा देना पड़ा। दोनों नेताओं के बीच वही टकराव पंजाब कांग्रेस में विगत कुछ दिनों से एक बार फिर सामने आया, जब दिल्ली से लेकर पंजाब तक में बैठकों के कई दौर चले। लंबे समय तक असमंजस में रहने के बाद पार्टी आलाकमान ने अब सिद्धू को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपी है तो चार कार्यकारी अध्यक्षों की भी नियुक्ति इस उम्मीद में की है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी आपसी सामंजस्य के साथ आगे बढ़ सके। इसका असर विधानसभा चुनावों पर क्या होगा, इसका सही-सही पता तो चुनाव बाद ही चल सकेगा, लेकिन इतना तय है कि कांग्रेस के इस अंदरूनी कलह से पार्टी की जो भद्द पिटी है, वह कोई सकारात्मक संदेश देने वाला नहीं है।
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर चुनौती सिद्धू के समक्ष भी बड़ी है, जिन पर 2022 के चुनाव में कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन का दबाव होगा तो नजरें इस पर होंगी कि टिकटों के बंटवारे से लेकर प्रदेश स्तर पर पार्टी के संगठन में और क्या बदलाव आता है और सियासी तौर पर एक-दूसरे को नापसंद करने वाले नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू किस तरह एक-दूसरे के साथ सहज होकर काम कर पाते हैं? नजरें कैप्टन के सियासी कदम पर भी होगी कि सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर अपनी नाराजगी खुलकर जाहिर करने के बाद भी पार्टी हाईकमान के इस फैसले के बाद वह कौन सा कदम उठाते हैं?
(डिस्क्लेमर: प्रस्तुत लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और टाइम्स नेटवर्क इन विचारों से इत्तेफाक नहीं रखता है)
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