अनिमेष भूषण। कहानियां हमारे चारो-तरफ रह रोज घटित होती हैं। कुछ कहानियां लिखी जाती हैं और बाकी कहानियां अनकही रह जाती हैं। कहानियों की भीड़ में आप बड़ी कहानी आप किसे मानेंगे? यकीनन वही कहानी बड़ी होगी, जिसे वक्त ना मिटा सके। 2021 का बहुचर्चित उपन्यास `रामभक्त रंगबाज़’ ऐसी ही एक बड़ी कहानी है। इसकी पृष्ठभूमि तो 1990 की है लेकिन इसे लिखा 30 साल बाद गया है। इसे पढ़कर लगता है कि कहानी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी 30 साल पहले रही होगी। इसके लेखक हैं, राकेश कायस्थ और इसे हिंद युग्म ने छापा है।
1990 वो दौर था, जब भारत मंडल, कमंडल और भूमंडल के त्रिकोण में फंसा था। मंडल कमीशन की सिफारिशों के लागू होने के बाद देश में तनाव था। लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा ने कमंडल यानी हिंदुत्व की राजनीति को गर्मा दिया था, सोवियत संघ के विघटन के बाद भूमंडल तेजी से बदल रहा था और भारत में भी जल्द ही नई आर्थिक नीति दस्तक देने वाली थी। मोहल्ला आरामगंज इन बड़े-बड़े बदलावों से बेख़बर अपनी रफ्तार से चल रहा था। यह मोहल्ला बहुत से दिलचस्प किरदारों से भरा हुआ था। बकौल लेखक “अगर दो वाक्य बोलते वक्त आदमी बीच में उबासी ना ले तो समझ लो कि वह आरामगंज चौक का नहीं बल्कि कहीं और का है। यहां मुंह से फेकी गई पान की पीक भी नाली तक पहुंचने में उतना वक्त ले लेती है, जितनी देर में शहर किसी दूसरे इलाके में कोई भला आदमी इस चौराहे से उस चौराहे तक पहुंच जाये।“
दिलचस्प किदारों की इस भीड़ के बीच सबसे अनोखी शख्सियत थे, आशिक मियां जिन्हें लोग प्यार से रंगबाज़ भी कहते थे। हिंदू बस्ती में इकलौता मुसलमान जैसे 32 दांत के बीच जुबान। आशिक कारसाज़ था, आशिक यारबाज़ था और सबसे बड़ी बात ये कि आशिक असली रंगबाज़ था। जहां भी होता वहां रंग जमा देता। आशिक पेशे से दर्जी था। आरामगंज चौक पर उसकी दुकान थी और मुसलमान बस्ती रैयत टोली में उसका घर। लोग कहते थे कि आशिक सुई और धागे की नहीं बल्कि बातों की खाता है। लेकिन आशिक कहता था “ खाते तो हम वही हैं, जो हमें हमारे रामजी देते थे।“ जी हाँ मुसलमान आशिक एक घोषित रामभक्त था। जिन पंडित जी के घर में उसने अपना बचपन बिताया था, उनकी सोहबत ने आशिक को बहुत सारे हिंदुओं से कहीं ज्यादा हिंदू बना दिया था।
आशिक की जिंदगी अपनी रफ्तार से चल रही थी और अपने अतरंगी किस्सों के साथ आरामगंज का अफसाना भी आगे बढ़ रहा था। कस्बाई समाज में जाति की राजनीति, अंतर्जातीय प्रेम संबंध और सामाजिक टकराव इन सबका जिक्र इस उपन्यास में इतने दिलचस्प अंदाज़ में है कि पाठक किस्सागोई में पूरी तरह खो जाता है। मगर जैसे ही लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा शुरू होती है, कहानी बदलने लगती है। मंडल नेपथ्य में चला जाता है और जाति की जगह धर्म ले लेता है। आरामगंज चौक के बहुत से लोगों के लिए आशिक रातो-रात रामभक्त से मुसलमानों को नुमाइंदा बन जाता है। मुसलमान बस्ती रैयत टोली वालों के लिए तो आशिक “मिसिर जी” पहले से ही था। ऐसे में उसके लिए पहचान का एक बड़ा संकट खड़ा हो गया कि आखिर वो है कौन? लेखक सवाल उठाते हैं “आखिर एक आदमी की पहचान क्या होती है, जो वो खुद माने या जो दूसरे तय करें?“
इसी बीच स्थानीय राजनीति में भी तूफान खड़ा हुआ, जिससे आशिक की जिंदगी गहरे संकट में फंस गई। कुछ नेताओं ने प्रशासन के साथ मिलकर आशिक की बस्ती रैयत टोली को गैर-कानूनी घोषित करवा दिया। इधर “एक धक्का और दो बाबरी मस्जिद तोड़ दो” का नारा बुलंद हुआ और दूसरी तरफ रामभक्त रंगबाज़ की बस्ती पर बुलडोजर चलाने की तैयारियां शुरू हो गईं। नाटकीय उतार-चढ़ाव के बीच कहानी वहां पहुंची, जहां ये समझ में आया कि सांप्रादायिक राजनीति के उभार के बावजूद समाज धार्मिक आधार पर उतना विभाजित नहीं हुआ है, जितना विभाजित दिखाई देता है। स्नेह के बंधन अब भी बचे हुए हैं और धर्म से परे न्याय के पक्ष में खड़े होनेवाले भी हैं। आशिक के अब्बू कहते थे “इंसान चाहे जैसा भी हो, मगर अंदर से अच्छा ही होता है।“ यह उपन्यास इंसान की बुनियादी अच्छाई को बार-बार रेखांकित करता है।
कुछ हिंदुओं ने आशिक की मदद की और वो एक मुश्किल कानूनी लड़ाई जीतने में कामयाब रहा। उसका मकान तो बच गया लेकिन धीमे ज़हर की तरह असर कर रही सांप्रादायिक राजनीति ने उसे निगल लिया। आरामगंज चौक के ही एक अर्ध-विक्षिप्त व्यक्ति ने आशिक पर पेट्रोल छिड़कर इसलिए जला दिया क्योंकि कुछ लोगों के मुंह से सुनता आया था कि मुसलमान बुरे होते हैं।
उपन्यास का यह प्रसंग इतना मार्मिक है कि अंतरात्मा को झिझोंड़ कर रख दे- “आशिक का जनाज़ा इंद्रदेव बाबा के दरवाजे से होकर गुजर रहा है, जहां वह रोज थोड़ी देर के लिए रुकता था। लेकिन आज रूकना आशिक के बस में कहां है? बाबा कहते थे, राम का मार्ग दुखों का मार्ग है। आशिक भी यह बात अपने आप से कहता था, लेकिन अब कौन किससे कहेगा।''
उपन्यास का शिल्प आपको श्रीलाल शुक्ल के राग-दरबारी की याद दिलाता है लेकिन आखिर में आते-आते यह एक बहुत करूण शोकगीत में बदल जाता है। पाठक के सामने रह जाते हैं, अनगिनत सवाल। धर्म जब अपने राजनीतिक स्वरूप में आता है, तो इतना निर्मम क्यों हो जाता है कि बेगुनाओं की मौत का कारण बन जाये? कहानी आशिक की मौत पर खत्म नहीं होती है। 30 साल बाद उसका बेटा शमी दोबारा उसी शहर में लौटता है। वह न्यूज़ीलैंड में स्थायी रूप से बसने जा रहा है। लेकिन जाने से पहले वह आरामगंज़ के लोगों के मुंह से सुनना चाहता है कि उसके पिता की असली कहानी क्या थी। हाल के बरसों में मुसलमानों को लेकर समाज में जिस तरह की नफरत पैदा हुई है, उससे शमी पूरी तरह नाउम्मीद हो चला है। लेकिन अपना वतन छोड़कर हमेशा के लिए जाना उसके लिए बेहद तकलीफदेह और उलझन भरा फैसला है। शमी के मानसिक संघर्ष को लेखक कुछ इस तरह बयान करते हैं--
“बेहतरी की उम्मीद में कहीं और चले जाना ही हिजरत है। मगर हम सिर्फ अपने फैसले चुन सकते हैं, उनके नतीजे नहीं। क्या मक्का से मदीना जानेवाले पैगंबर के वारिस हमेशा के लिए सुखी हो गये? शांति की खातिर कृष्ण ने मथुरा छोड़कर जिस द्वारिका का रूख किया, वह भी अंतत: अपनों के रक्त में नहाकर हमेशा के लिए समुद्र में समा गई।''
आरामगंज़ से विदा होने से पहले शमी के मुलाकात अपने पिता के हत्यारे से हुई। वही हत्यारा जिसके सपने देखकर शमी आधी नींद से जाग जाया करता था। लेकिन जब वह हत्यारा शमी के सामने आया तो उसकी कमज़ोर जेहनी हालत देखकर शमी के मन में घृणा की जगह असीम करूणा पैदा हो गई। उपन्यास उस बड़े संदेश पर खत्म होता है, जहां शमी की पत्नी उससे कहती है “इंसान यह भ्रम पाल लेता है कि किसी को माफ करके वह उसका भला कर रहा है। असल में माफ करना खुद को बुरी यादों के कैदखाने से आजाद करना है।''
भाषा और शिल्प इस उपन्यास की बहुत बड़ी ताकत है। कथा का प्रवाह इतना सहज और शैली इतनी रोचक है कि एक बार शुरू करने के बाद इसे बीच में छोड़ पाना कठिन है। लेकिन शिल्प से भी ज्यादा अहम वो कहानी है, जो रामभक्त रंगबाज़ को हाल के बरसों में लिखे गये महत्वपूर्ण उपन्यासों की कतार में लाकर खड़ी करती है।
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