(अश्विनी कुमार)
आज राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्मदिन है. लेकिन हम दिनकर जी को क्यों याद करें? उनके जिन्दगीनामे से हमारा क्या लेना-देना? 2020 वाली आक्रामक और चापलूसी पसंद पीढ़ी को 1908 में जन्मे मृदुभाषी इंसान और ‘विद्रोही कवि’ को क्यों याद करना चाहिए?वैसे भी जिन्हें विद्रोही होना था वे तो कब के मौन हो चुके हैं! और जिनके मौन रहने में ही देश का भला था, उनके हाथ में सोशल मीडिया नाम की डराने वाली तलवार है. मुद्दों का खून हो जाने और वाहियात बातों के मुद्दा बन जाने के इस दौर में दिनकर का भला क्या काम?
चलिए फिर भी दिनकर जी को थोड़ा याद कर लेते हैं. मगर जिसने अपने मौजूदा दौर पर इतना कुछ लिख दिया उन पर क्या लिखना? सूरज को रौशनी क्या दिखाना? तो बेहतर होगा कि उनकी लिखी चंद पंक्तियों को आज के संदर्भ में समझा जाए.1965 की बात है. पंडित नेहरू ने रामधारी सिंह दिनकर को भारत सरकार का हिन्दी सलाहकार नियुक्त किया. दिनकर जी को अपनी रचनाओं के लिहाज से दिल्ली बड़ी रास आई. लेकिन उनकी कविताओं की पंक्तियों से फूटी विद्रोह की आग ने पूरी सरकार और अफसरशाही को विचलित कर दिया. 4 साल में उनके करीब दो दर्जन बार तबादले हो गए. लेकिन चौंकाने वाली बात ये है कि नेहरूजी ने उन्हें ये जिम्मेदारी सौंपने का जोखिम उनकी विद्रोही प्रवृति को जानते हुए भी लिया था.
क्योंकि ये वही दिनकर थे, जिन्होंने इससे पहले राज्यसभा सदस्य रहते हुए सदन में नेहरू पर ऐसी चोट की थी, जिसकी आज कोई कल्पना भी नहीं कर सकता. दिनकर की वो चार पंक्तियां सुनिए-
“देखने में देवता सदृश्य लगता है
बंद कमरे में बैठकर गलत हुक्म लिखता है.
जिस पापी को गुण नहीं गोत्र प्यारा हो
समझो उसी ने हमें मारा है.”
कल्पना कीजिए सदन में ये बेहद कठोर पंक्तियां तत्कालीन प्रधानमंत्री के लिए उसी की पसंद से चुने गए प्रतिनिधि (सांसद) ने कही.
अब संसद के ही एक ताजा उदाहरण पर गौर कीजिए. टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा ने पिछले दिनों पीएम केयर फंड पर धुआंधार भाषण दिया. बड़े ही प्रखर और मौजू सवाल उठाए. पूछा कि सरकारी कर्मचारियों में कहां इतनी हिम्मत की आप उसे पीएम फंड में डोनेट करने कहें और वह मना कर दे. टीएमसी सांसद ने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों से पीएम केयर फंड में आए पैसों पर भी बड़े ही तार्किक लहजे में सवाल किया. उन्होंने अपने भाषण का अंत उस राजा के उदाहरण से किया, जिसके सामने सच कहने का साहस कोई नहीं करता था. जाहिर है महुआ मोइत्रा सत्ता पक्ष के सांसदों को ललकार रही थीं कि वे उठ खड़े हों और अपनी सरकार की गलत नीतियों की मुखालफत करें. कुछ वैसे ही जैसे रामधारी सिंह दिनकर जी ने नेहरू जी को आईना दिखा दिया था. लेकिन यहीं पर सवाल रह गया कि क्या महुआ यही काम अपनी पार्टी की मुखिया ममता बनर्जी के खिलाफ कर सकती हैं? ममता के किसी फैसले पर ऊंगली उठा सकती हैं? अगर नहीं, तो फिर दूसरे खेमे में दिनकर पैदा होने की उम्मीद क्यों करना? तो क्यों न मान लिया जाए कि आज के युग में दिनकर नहीं हो सकते, क्योंकि आज का युग दिनकर को डिजर्व ही नहीं करता.
दरअसल, सत्ता और उसकी सुविधाओं को हासिल करने की न खत्म होने वाली जिजिविषा ने विद्रोह की आग को तो नपुंसक बनाया ही है, उसने विरोध की धार को भी ऐसा कुंद किया है कि जब कोई तर्कों और तथ्यों के साथ भी विरोध के लिए खड़ा होता है, तो उसके मुखौटे के पीछे छुपा मुख इधर-उधर से झांकने लग ही जाता है. ऐसे दौर में लाभ-हानि के मोह से परे कोई अपने घर में ही विद्रोह का बिगुल फूंकने वाले दिनकर की कल्पना करे, तो ऐसा कहां संभव है?
तटस्थता के ऐसे त्याग की तो दिनकर जी भी ने नहीं सोची होगी !
दिनकर जी की ये दो पंक्तियां आपने कभी-न-कभी जरूर सुनी होगी:
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध.
दिनकर जी ने सोचा भी न होगा कि तटस्थता के कवच से बाहर निकलने का उनका आग्रह एक दिन इस विकृत रूप में सामने होगा. उन्होंने तो तटस्थता तोड़कर सच के साथ खड़े होने की उम्मीद की थी. लेकिन आज हालत क्या है? तटस्थ तो आज कोई नहीं, लेकिन ऐसा क्यों लगता है कि सच से हर कोई तटस्थ है? मुद्दा मिलते ही खेमे तैयार हैं. जुबान दिल पर लगने वाली कटार जैसी धारदार है. सच के घायल होने की किसी को नहीं परवाह है. कंगना-दीपिका-सुशांत-रिया या दीया के गुण-दोष के विश्लेषण की इजाजत छिन चुकी है. बताने के लिए आप बाध्य हैं- कि आप इस पार हैं या उस पार? दिनकर जी का तटस्थता छोड़ने का आग्रह शायद ऐसे पूर्वाग्रह में जड़वत हुए मनुष्यों कि लिए नहीं था.
दिनकर जी की कविताओं की हर पंक्ति में कुछ-न-कुछ संदेश है, जीवन का पाठ है. कड़वी सच्चाई की धार है. गहराई इतनी कि उनकी कविता की पंक्तियों की व्याख्या करने बैठें, तो हर कविता पर एक किताब लिख जाए. लेकिन पूर्वाग्रह से प्रदूषित मौजूदा माहौल में दिनकर जी की कविताओं का मर्म और संदर्भ आप दूसरों से क्यों समझें? राष्ट्रकवि के जन्मदिन पर उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि आप उन्हें खुद पढ़ें. बार-बार पढ़ें. उनके कहे को वक्तसे जोड़ें. शपथ लें कि खुद को उस जमात से अलग करने की कोशिश करेंगे, जिनके लिए राष्ट्रकवि दिनकर जी ने कहा था-
जब नाश मनुज पर छाता है पहले विवेक मर जाता है।
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