लखनऊ : अपने 65 जन्मदिवस के मौके पर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की सुप्रीमो मायावती ने राजनीतिक रूप से बड़ा ऐलान किया। मायावती ने कहा है कि वह यूपी और उत्तराखंड में किसी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करेंगी। इन राज्यों में बसपा अकेले चुनाव लडे़गी। बसपा सुप्रीमो की यह घोषणा अहम है क्योंकि उनकी पार्टी 2012 के बाद से यूपी की सत्ता से बाहर है और कई पुराने चेहरे पार्टी छोड़ चुके हैं। मायावती के दलित-मुस्लिम समीकरण को इस बार यूपी चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी और ओम प्रकाश राजभर से चुनौती मिलने जा रही है। इस बार उनके सामने चुनौती पहले से कहीं ज्यादा है। उन्होंने गठबंधन की सियासत से दूर होकर अपनी पार्टी के लिए ज्यादा साहसिक फैसला लिया है। वह इस बार संभलकर चुनावी चाल चलना चाहती हैं।
साल 2012 से यूपी की सत्ता से बाहर हैं मायावती
मायावती की पहचान एक सख्त प्रशासक की रही है। वह साल 2012 से सत्ता से बाहर हैं। इसके बाद के राज्य के चुनावों में बसपा अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई हैं। पुराने नेताओं पार्टी का साथ छोड़कर चले गए हैं। दलित समुदाय में इनकी पकड़ कमजोर तो नहीं हुई लेकिन ओम प्रकाश राजभर और चंद्रशेखर आजाद रावण जैसे नेताओं ने उनके दलित वोट बैंक में सेंध लगाने का काम किया है। दलित वर्ग के नए वोटरों में भी मायावती का जनाधार पहले जैसा नहीं है। मायावती 2022 के लिए खुद को किस तरह से तैयार करती हैं, इसमें उनकी राजनीतिक कुशलता देखी जाएगी।
बसपा के सामने है पहले से ज्यादा बड़ी चुनौती
अपने तीन दशकों के राजनीतिक कार्यकाल में इस समय मायावती सबसे ज्यादा कमजोर नजर आ रही हैं। फिर भी उन्होंने समान विचारधारा और छोटे दलों के साथ गठबंधन नहीं करने की बात कही है। दरअसल, 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन का उनका अनुभव अच्छा नहीं रहा। 'लखनऊ गेस्ट हाउस कांड' को भूलते हुए मायावती ने समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ गठबंधन किया। इस गठबंधन को प्रदेश में अच्छा प्रदर्शन करने की उम्मीद थी लेकिन यह गठबंधन कुछ कमाल नहीं कर सका।
2019 के लोकसभा चुनाव में 10 सीटों पर मिली जीत
इस चुनाव में बसपा शून्य से 10 सीटों पर पहुंच गई जबकि सपा मुश्किल से पांच सीटें जीतने में सफल हो पाई। 2019 के लोकसभा चुनाव में 10 सीटें जीतने के बावजूद मायावती ने गठबंधन की हार के लिए सपा को जिम्मेदार ठहराया। इसके बाद वह गठबंधन से अलग हो गईं। मायावती उन्होंने सपा के साथ बसपा के गठबंधन को एक 'भूल' करार दिया। मायावती ने कहा कि वह अपना वोट तो दूसरी पार्टी को ट्रांसफर करा देती हैं लेकिन जिसके साथ गठबंधन होता है वह पार्टी अपना वोट उसे ट्रांसफर नहीं करा पाती। ऐसे में गठबंधन वाली पार्टी के उम्मीदवार तो जीत जाते हैं लेकिन उनकी पार्टी हार जाती है। पिछले गठबंधन का अनुभव मायावती का अच्छा नहीं रहा है। इस बार का विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने के पीछे कई वजहों में मे से एक कारण यह भी हो सकता है।
वोटबैंक कमोबेश बरकरार रखा
बसपा से पुराने चेहरों के किनारा करने और अपने ऊपर पैसे लेकर टिकट देने के आरोपों के बावजूद मायावती का वोटबैंक कमोबेश बरकरार रहा है। हालांकि, यह वोटबैंक उन्हें सीटें नहीं दिला सका है। फिर भी मायावती को उम्मीद है कि बदलते जातीय समीकरणों के बीच उनकी पार्टी अच्छा प्रदर्शन करेगी। राज्य का मुस्लिम मतदाता बसपा और सपा दोनों को वोट देता आया है लेकिन इस बार एआईएमआईएम सुप्रीमो असदुद्दीन ओवैसी यूपी के चुनाव में अपना दमखम दिखाते नजर आएंगे।
ओवैसी-राजभर से इस बार चुनौती
ओवैसी ने ओम प्रकाश राजभर के साथ मिलकर भागीदारी संकल्प मोर्चा बनाया है। मायावती के दलित-मुस्लिम समीकरण को यह मोर्चा चुनौती देगा। यूपी चुनाव में ओवैसी-राजभर की कोशिश मायावती के वोटबैंक में सेंध लगाने की होगी, इसकी काट क्या होगी, बसपा सुप्रीम की इस पर भी नजर होगी। मायावती साल 1989 में पहली बार लोकसभा के लिए चुनी गईं। राजनीति में वह कांशीराम की विचारधारा से प्रभावित हुईं। इसके बाद 1995 में पहली बार सूबे का मुख्यमंत्री बनीं। वह दलित समुदाय से आने वाली राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री हैं। वह दूसरी बार 1997 में राज्य की सीएम बनीं। इसके बाद 2002 और फिर 2007 में उन्होंने मुख्यमंत्री पद संभाला और 2012 तक सत्ता में बनी रहीं।
Times Now Navbharat पर पढ़ें India News in Hindi, साथ ही ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज अपडेट के लिए हमें गूगल न्यूज़ पर फॉलो करें ।