नई दिल्ली : भारत और पाकिस्तान के बीच 1971 में हुए युद्ध और इसमें भारत को मिली जीत भला किस भारतीय को गौरवान्वित नहीं करता। इस जंग का नतीजा पाकिस्तान के विभाजन और एक नए व संप्रभु राष्ट्र के रूप में बांग्लादेश के रूप में सामने आया। तब भारतीय सेना का नेतृत्व फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ के हाथों में था। भारतीय सेना प्रमुख की सूझबूझ का नतीजा ही था कि भारत ने इसमें ऐतिहासिक जीत हासिल की और 90 हजार पाकिस्तानी सैनिकों को बंदी बना लिया गया।
पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान में बढ़ती तल्खी के बीच जब भारत ने इसमें शामिल होने का फैसला किया तो भारत में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं। इंदिरा गांधी मार्च-अप्रैल 1971 में ही भारतीय सेना के युद्ध के मैदान में उतरने के पक्ष में थीं, लेकिन तब सैम मानेकशॉ ने इसे सीधे खारिज कर दिया था। तत्कालीन भौगोलिक परिस्थितियों और सैन्य तैयारी का हवाला देते हुए तब मानेकशॉ ने इंदिरा गांधी से सैन्य दखल के लिए कुछ महीनों का वक्त मांग लिया।
एक इंटरव्यू में इसका जिक्र करते हुए फील्ड मार्शल मानेकशॉ ने कहा था कि इंदिरा गांधी पूर्वी पाकिस्तान के हालात को लेकर काफी परेशान थीं। सबसे बड़ी समस्या पूर्वी पाकिस्तान से भारत आ रहे शरणार्थियों की थी। अप्रैल में इंदिरा गांधी ने इस मसले पर चर्चा के लिए उच्चस्तीय बैठक बुलाई थी, जिसमें मानेकशॉ भी थे। बताया जाता है कि इंदिरा गांधी ने जैसे ही संघर्ष में जल्द से दखल देने की बात कही, मानेकशॉ ने तुरंत इसका विरोध किया। उनके तेवर कुछ ऐसे थे कि इंदिरा गांधी भी चुप हो गईं।
उस समय मानेकशॉ ही थे, जो प्रधानमंत्री की बात को नकारने की हिम्मत रखते थे। वह जानते थे कि अधूरी तैयारी के साथ युद्ध के मैदान में उतरने का नतीजा हार के रूप में सामने आ सकता है। ऐसे में उन्होंने इस तरह का कोई भी जोखिम लेने से बचते हुए प्रधानमंत्री की नाराजगी झेलने को बेहतर समझा और दिसंबर 1971 में पूरी तैयारी के साथ ही युद्ध के मैदान में उतरे, जिसके नतीजों ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी सहित हर भारतवासी के चेहरे पर गर्व भरी मुस्कान ला दी।
पाकिस्तान के साथ 1971 के युद्ध को लेकर मानेकशॉ की वह बात भी खूब याद की जाती है, जिसमें उन्होंने पाकिस्तान के तत्कालीन सेना प्रमुख याह्या खां को लेकर कहा था कि उन्होंने आधा मुल्क देकर 24 साल पहले लिया गया 1000 रुपये का उनका कर्ज चुकाया। बताते हैं कि साल 1947 में जब भारत और पाकिस्तान का विभाजन हुआ, उससे पहले मानेकशॉ और याह्या खां दिल्ली के सेना मुख्यालय में तैनात थे। याह्या खां को मानेकशॉ की मोटरबाइक बहुत पसंद थी, जिसे वह लेना चाहते थे।
यह बाइक मानेकशॉ के लिए भी बेहद खास थी। वह इसे याह्या को बेचने के लिए तैयार नहीं थे। लेकिन जब विभाजन के बाद याह्या पाकिस्तान जाने को तैयार हुए तो मानेकशॉ उन्हें अपनी बाइक देने को तैयार हो गए। इसके लिए उन्होंने 1,000 रुपये की कीमत लगाई। याह्या इस वादे के साथ पाकिस्तान चले गए कि वह जल्द पैसे भेज देंगे, लेकिन 24 साल बाद भी मानेकशॉ को पैसे नहीं मिले। 1971 का युद्ध जीतने के बाद मानेकशॉ ने मजाकिया अंदाज में कहा कि आखिरकार याह्या ने आधा मुल्क देकर वह कर्ज लौटाया।
दोस्तों, परिजनों के बीच सैम बहादुर के नाम से मशहूर सैम मानेकशॉ का पूरा नाम सैम होरमूजजी फ्रॉमजी जमशेदजी मानेकशॉ था। वह 1934 में सेना में भर्ती हुए थे, जब भारत ब्रिटिश साम्राज्य का एक उपनिवेश हुआ करता था। उन्हें सुर्खियां उस वक्त मिली, जब 1942 में दूसरे विश्व युद्ध के दौरान बर्मा के मोर्चे पर तैनाती के दौरान एक जापानी सैनिक ने अपनी मशीनगन से सात गोलियां उन्हें मारीं। बुरी तरह घायल होने के बाद ही सैम बचने में कामयाब रहे और फिर जीवन में उन्होंने जो कुछ भी हासिल किया, वह इतिहास ही है। 1973 में उन्हें फील्ड मार्शल के ओहदे से नवाजा गया था। 27 जून, 2008 को भारत के इस बहादुर सपूत ने दुनिया को अलविदा कह दिया।
एक आर्मी अफसर के तौर पर सैम जितने सख्त थे, भीतर से उनका दिल उतना ही नरम भी था। बताया जता है कि 1971 के युद्ध में उन्हें असली खुशी तब नहीं हुई, जब भारत ने पाकिस्तान पर जीत दर्ज करते हुए लगभग 90 हजार सैनिकों को बंदी बना लिया था। उन्हें असली खुशी तब हुई, जब पाकिस्तानी सैनिकों ने रिहाई के बाद स्वीकार किया कि भारत में उनके साथ अच्छा व्यवहार हुआ। युद्ध में मिलने वाली जीत के बीच उन्हें इसमें जिंदगियां खोने का दुख भी हमेशा होता था।
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