Sri Lanka Economic Crisis: राजनीति में कुछ भी हो सकता है यह बात बार-बार चरितार्थ होती है। ताजा उदाहरण श्रीलंका से है, जहां पर आर्थिक संकट से जूझ रहे देश को, भंवर से निकालने के लिए, उस शख्स को चुना गया है। जिसे 2020 के चुनाव में जनता ने नकार दिया था। यही नहीं उसे इस तरह नकारा गया था कि उनकी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली थी। जबकि यूएनपी भारत में कांग्रेस की तरह श्रीलंका की सबसे पुरानी पार्टी है। अब उसी पार्टी के नेता रानिल विक्रमसिंघे को श्रीलंका का प्रधानमंत्री बनाया गया है। विक्रमसिंघे को भारत का करीबी माना जाता है। अब देखना यह है कि विक्रमसिंघे क्या श्रीलंका के अच्छे दिन वापस ला पाएंगे और इस काम में उन्हें जनता का कितना साथ मिलेगा।
कौन हैं रानिल विक्रमसिंघे
रानिल विक्रमसिंघे, यूनाइटेड नेशनल पार्टी के नेता हैं। और वह चार बार श्रीलंका के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारी 1993 से 2019 की अवधि में उनके बार 4 बार के कार्यकाल में 6 साल से ज्यादा समय तक रही है। इसके अलावा वह दो बार विपक्ष के नेता भी रह चुके हैं। ऐसे में रानिल विक्रमसिंघे श्रीलंका की राजनीति में कोई अनजान और अनुभवहीन चेहरा नहीं है। विक्रमसिंघे की एक और खासियत बताई जाती है कि उनके अंतरराष्ट्रीय नेताओं से संबंध काफी अच्छे हैं। जिसका वह मौजूदा संकट में फायदा उठा सकते हैं। और श्रीलंका को पटरी पर लाने में अहम सहयोग जुटा सकते हैं। आर्थिक नीति पर भी विक्रमसिंघे को ओपेन-इकोनॉमी का पक्षधर भी माना जाता है, ऐसे में पश्चिमी देशों के अनुकूल नीति उन्हें पूंजी जुटाने में मदद कर सकती है।
इन चुनौतियों से सबसे पहले निपटना होगा
विक्रमसिंघे के सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि कैसे जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति सामान्य की जाय। क्योंकि श्रीलंका में महंगाई दर अप्रैल में 28 फीसदी को भी पार कर गई है। ऐसे में जब तक जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति नहीं बढ़ेगी महंगाई में कमी नहीं आएगी। और ऐसा करने के लिए श्रीलंका को अपनी देनदारी चुकानी की जरूरत है।
इस समय श्रीलंका पर करीब 51 अरब डॉलर का विदेशी कर्ज है। और इसमे से करीब 16 फीसदी कर्ज चीन का है। श्रीलंका को अपने कुल कर्ज का 7 अरब डॉलर इसी साल भुगतान करना है। लेकिन भुगतान के लिए उसके पास पैसे नही हैं। हाल ही में श्रीलंका के पूर्व वित्त मंत्री अली साबरी ने संसद में बताया था कि उपयोग करने योग्य विदेशी मुद्रा भंडार 50 मिलियन डॉलर से भी नीचे चला गया है। खर्च आया की तुलना ढाई गुना ज्यादा है। जाहिर है विक्रमसिंघे को इन देनदारियों को चुकाने के लिए आर्थिक सहायता की जरूरत है। इसके लिए भुगतान के लिए प्रमुख संस्थाओं से मोरेटेरियम की जरूरत है। जिससे उन्हें कर्ज चुकाने में थोड़ी राहत मिल सके।
इसके अलावा श्रीलंका का आय बढ़ाने में टूरिज्म सेक्टर की अहम भूमिका रही है। साल 2019 की रिपोर्ट के अनुसार श्रीलंका की डीजीपी में 12 फीसदी से ज्यादा टूरिज्म की हिस्सेदारी है। इसे देखते हुए विक्रमसिंघे के सामने टूरिज्म सेक्टर को दोबारा पटरी पर लाने की चुनौती है। क्योंकि अगर वह स्थिति को सामान्य कर पर्यटकों का भरोसा दोबारा जीत पाए, तो श्रीलंका की इकोनॉमी को बड़ा बूस्ट मिलेगा।
राजनीतिक चुनौती
आर्थिक मोर्चे के साथ-साथ विक्रमसिंघे को राजनीतिक मोर्चे पर भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। सबसे बड़ी वजह तो यही है कि वह भले ही प्रधानमंत्री बन गए हैं, लेकिन उनकी पार्टी श्रीलंका की संसद में मजबूत नहीं है। वह इकलौते सांसद हैं। इसके अलावा विक्रमसिंघे को राजपक्षे परिवार का करीबी भी माना जाता है। जिसके कारण उनकी नियुक्ति पर श्रीलंका में विरोध प्रदर्शन भी हो रहे हैं। ऐसे में विक्रमसिंघे को आर्थिक चुनौतियों के साथ-साथ जनता का भरोसा जीतने के लिए भी अहम कदम उठाने होंगे। जिससे कि वह राजनीतिक रूप से भी मजबूत हो सकें। इसके अलावा जिस घोटाले की वजह से श्रीलंका की सबसे पुरानी पार्टी को 2020 में चुनावी सफाये का सामना करना पड़ा था, उस छवि से भी विक्रमसिंघे को बाहर निकलना होगा। सेंट्रल बैंक बांड में हुए इनसाइडर ट्रेडिंग घोटाले से विक्रमसिंघे की छवि को भारी धक्का लगा था।
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