ज्ञानवापी से पहले मथुरा में मंदिर! जानें वो कौन सी है 10 ऐतिहासिक गवाहियां

मथुरा के केस में कोर्ट से ये क्लियर हो चुका है कि 1991 का एक्ट इस केस पर लागू नहीं होता। लेकिन वो सबूत क्या है, जो ज्ञानवापी से पहले मथुरा में मंदिर बनेगा।

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ज्ञानवापी से पहले मथुरा में मंदिर, आखिर वो कौन से सबूत हैं 

ज्ञानवापी का मामला तो अभी जिला अदालत है। वीडियोग्राफी के सबूत 30 मई को दिए जाएंगे। लेकिन पाठशाला में आज मथुरा का नया चैप्टर। जिसमें आपको बताएंगे कि कैसे ज्ञानवापी से पहले मथुरा में मंदिर बन जाएगा। क्योंकि मथुरा के केस में कोर्ट से ये क्लियर हो चुका है कि 1991 का एक्ट इस केस पर लागू नहीं होता। लेकिन वो सबूत क्या है, जो ज्ञानवापी से पहले मथुरा में मंदिर बनेगा। मथुरा का यही चैप्टर खुलेगा। इससे पहले मथुरा का जो चैप्टर हमने दिखाया था उसमें मैंने आपको बताया था कि जब मुगल बादशाह औरगंजेब ने 1669 में काशी विश्वनाथ सहित सभी मंदिरों को तोड़ने का फरमान दिया। तो इसके एक साल बाद यानी 1670 में औरंगजेब ने मथुरा के मंदिरों को तोड़ने का अलग से फरमान दिया। इसके बाद मथुरा में कृष्ण जन्म स्थान पर बने प्राचीन मंदिर की लोकेशन पर ईदगाह मस्जिद बनाई गई। इसके आगे का इतिहास ये है कि

1707 में जब औरंगजेब की मौत हुई तो उसके बाद 1777 में मराठा शासकों ने गोवर्धन के युद्ध में जीत हासिल करके आगरा और मथुरा को अपने कंट्रोल में लिया। 
मराठा शासकों ने कृष्ण जन्म स्थान के प्राचीन मंदिर सहित पूरे कटरा केशवदेव इलाके की जमीन को नजुल यानी सरकारी जमीन घोषित कर दी।
मराठा शासन के समय ईदगाह मस्जिद में अजान देने वाले मुअज्जिन भी ईदगाह मस्जिद छोड़कर दूसरी जगह पर चला गया था।
सन 1803 में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने लॉर्ड लेक के नेतृत्व में मराठा शासक दौलत राव सिंधिया को हराया और मथुरा इलाके के शासक बन गए।
लेकिन मथुरा का शासन अंग्रेजों को मिलने के बाद भी कटरा केशवदेव की जमीन सरकारी जमीन के तौर पर ही बनी रही।


मथुरा को जीतने के 12 साल बाद अंग्रेजों ने कटरा केशवदेव की जमीन की नीलामी करा दी। 

-1815 में कटरा केशवदेव की 13.37 एकड़ जमीन बनारस के राजा पटनीमल ने नीलामी में खरीदा
-राजा पटनीमल के कटरा केशवदेव की पूरी जमीन खरीदने के रेवेन्यू और म्यूनिसिपल रिकॉर्ड हैं
-1875 से 1877 के बीच पटनीमल के वंशजों को जमीन पर कोर्ट से 6 से ज़्यादा डिक्री जारी की गई थी
-राजा पटनीमल के वंशजों को मथुरा की जमीन पर बसने वाले किराएदारों से किराया भी मिलता था।

अंग्रेजों के जमाने में ही मुस्लिम पक्ष कटरा केशवदेव की जमीन की बिक्री के खिलाफ कोर्ट चला गया।

-1832 में ईदगाह मस्जिद के मुअज्जिन अताउल्लाह खातिब ने कटरा केशवदेव की जमीन बिक्री रद्द करने और मस्जिद को रिपेयर करने की अर्जी लगाई लेकिन ये केस इस आधार पर खारिज हो गया कि मराठा शासन के दौरान मुअज्जिन मस्जिद छोड़कर भाग गया था। 
-1897 में अहमद शाह नाम के व्यक्ति ने कटरा केशवदेव के पास रोड रिपेयर कर रहे गोपीनाथ पर केस कर दिया कि ये जमीन मुसलमानों की है। जिसे मजिस्ट्रेट ने खारिज कर दिया और कहा कि ये साबित नहीं होता कि ये जमीन मुसलमानों की है।

मथुरा विवाद में तीसरा केस
मथुरा विवाद में तीसरा केस 1920 में आया। जब अंजुमन इस्लामिया के सचिव काजी मुहम्मद अमीर ने कोर्ट में अर्जी दी कि मस्जिद की परिधि में कुछ पुराने अवशेषों पर पुजारी प्रह्लाद नाम के व्यक्ति ने मंदिर बनाना शुरू किया। और क्योंकि ये जमीन मुसलमानों की है और उनके अधिकार में है इसलिए यहां बने मंदिर के हिस्से को गिराया जाए। इस केस के फैसले में जज HG हार्पर का अहम ऑब्जर्वेशन था कि मथुरा पर आर्कियोलॉजिस्ट FS ग्राउस की किताब और दूसरे फैसलों में दोनों पक्षों द्वारा दिए गए संदर्भों से स्पष्ट है कि जिसे कटरा केशव देव कहा जाता है उस जगह पर एक समय पर भगवान कृष्ण को समर्पित एक भव्य और अहम हिंदू मंदिर था। औरंगजेब ने इस मंदिर को तोड़ा और यहां पर बहुत बड़ी मस्जिद बनवा दी। ये मस्जिद आज भी खड़ी है और मुसलमान यहां ईद की नमाज के लिए इस्तेमाल करते हैं। ये मस्जिद मंदिर के नींव के हिस्सों पर खड़ी है जो कि आज भी साफ दिखता है। मस्जिद के चारों तरफ अचानक ढलान है।  

1920 के इस केस में ब्रिटिश जज ने ये निष्कर्ष निकाला था कि  जिस जमीन पर मस्जिद बनी है, वो कम से कम 100 साल पहले राजा पटनीमल और उनके परिवार के नाम थी। इसलिए कोई अन्य पक्ष इस जमीन के मालिकाना हक पर दावा नहीं कर सकते।मुस्लिम पक्ष के दावे को खारिज करते हुए कोर्ट ने ये भी कहा कि मस्जिद की परिधि में कोई नया मंदिर बनाने की कोशिश नहीं हुईविवादित जमीन पर सालों से मंदिर था। इसलिए जो मंदिर बनाया जा रहा है कि वो मस्जिद की जमीन पर नहीं बनाया जा रहा। इसलिए ये केस खारिज किया जाता है।

मथुरा में प्राचीन केशव मंदिर को सबसे पहले 11वीं सदी में मुस्लिम आक्रांता महमूद गजनवी ने तोड़ा। फिर 12वीं सदी में मोहम्मद गोरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने तोड़ा। फिर 14वीं सदी में सुल्तान फिरोज शाह तुगलक ने तोड़ा। फिर 15वीं सदी में सुल्तान सिकंदर लोदी ने तोड़ा। बार बार हुए इन हमलों के बाद भी 16वीं सदी तक केशव मंदिर को पूजा करने वाली स्थिति में स्थापित किया गया। मुगल बादशाह अकबर के शासनकाल के दौरान सन 1580 में एक पुर्तगाली यात्री Father Antonio Monserrate मथुरा आया था। उसने प्राचीन केशव मंदिर के बारे में लिखा था कि मथुरा में कई मंदिरों के बीच सिर्फ एक हिंदू मंदिर बचा है। बाकी मंदिरों को मुसलमानों ने पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया। यमुना के किनारे बने इस मंदिर में पूरे भारत से भारी भीड़ आती है। इस मंदिर में प्रवेश के लिए भक्तों को यमुना के किनारे सिर और दाढ़ी मुंडवानी होती है और यमुना में कई बार डुबकी लगानी होती है। यमुना के किनारे करीब 300 नाई बैठते थे। जो बड़ी संख्या में आए भक्तों का सिर मुंडवाने में लगे रहते थे।'' 

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