29 जून को महा विकास अघाड़ी की आखिरी कैबिनेट बैठक के बाद उद्धव ठाकरे जब मंत्रालय से बाहर निकले तो उन्होंने दोनों हाथ जोड़ रखे थे, सबका धन्यवाद कर रहे थे। कोरोना की वजह से चेहरे पर मास्क था। चेहरे की भाव भंगिमा को पढ़ना आसान नहीं था लेकिन हालात को समझ कर ये कोई भी बता सकता था कि उद्धव ठाकरे बेहद दुखी और भावुक थे। मुख्यमंत्री पद जाने से ज्यादा दुख उन्हें अपनों की बगावत का था। सोचिए आज से 10 या 15 साल पहले, जब बालासाहेब ठाकरे राजनीति में सक्रिय थे तो क्या शिवसेना में इस तरह से बगावत हो सकती थी।
क्या कोई ये सोच सकता था कि बालासाहेब ठाकरे के रहते 55 विधायकों में से 40 विधायकों को कोई तोड़ ले जाएगा। बालासाहेब समय भी छुटपुट बगावत हुई थी कि लेकिन इतनी हिम्मत किसी ने नहीं की, जिससे शिवसेना की सत्ता चली जाए और पार्टी में बंटवारे की नौबत आ जाए।
उद्धव ठाकरे ने अपने इस्तीफे वाले भाषण में भी बागियों को अपना बताया। इस्तीफे से पहले तक उनकी यही कोशिश रही कि बागी लौट आएं। हर बार वो कहते रहे कि आप आ जाएइ, आप मेरे अपने हैं, हम बैठकर कोई रास्ता निकाल लेंगे। बागियों ने उद्धव ठाकरे की कोई बात नहीं सुनी। सोचिए अगर बालासाहेब ठाकरे जीवित होते तो क्या वो बागियों से ऐसे ही अपील करते। नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं होता। बालासाहेब ठाकरे तो पहले दिन ही बागियों को पार्टी से बाहर निकालने का ऐलान करते। बागियों को महाराष्ट्र में नहीं घुसने देने तक की बात कह सकते थे। बागियों को गद्दार पुकार सकते थे और महाराष्ट्र में बड़े पैमाने पर बागियों के विरोध करने के लिए शिवसैनिक को सड़क उतरने का आदेश दे सकते थे। उद्धव ठाकरे ने अपने पिता से अलग रास्ता अपनाया, वो ज्यादातर समय खामोश रहे। जब बोले भी तो बहुत प्रभावी नहीं बोले। शिवसैनिकों को अपनी ओर आकर्षित करने में भी नाकाम रहे। एक ही मौके पर पिता और पुत्र दोनों के स्टाइल की तुलना करने पर ये साफ कहा जा सकता है कि उद्धव ठाकरे और बालासाहेब ठाकरे की राजनीति में कोई समानता नहीं है।
शिवसेना में बगावत का इतिहास पुराना रहा है। 1975 में शिवसेना में पहली बार बगावत हुई थी। तब हेमंत गुप्ते ने बीएमसी चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में वोट डलावाया था तो बालासाहेब ठाकरे ने हेमंत गुप्ते और उनके समर्थकों को तुंरत पार्टी से निकाल दिया था। 1991 में छगन भुजबल, 2005 में नारायण राणे और 2005 में ही जब बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे ने पार्टी से विद्रोह किया था तो उनको भी पार्टी छोड़नी पड़ी थी। बाल ठाकरे ने बागियों को मनाने की कोई कोशिश नहीं की थी, बल्कि बागियों को पार्टी से निकाल दिया या फिर पार्टी छोड़कर खुद जाने दिया। उद्धव ठाकरे अब तक ये हिम्मत नहीं दिखा पाए हैं।
सवाल ये भी उठा कि क्या सत्ता के लिए शिवसेना ने खुद को बदल दिया है? पिछले ढाई साल में शिवसेना के काम करने के तरीके को देखें तो ये आसानी से कहा जा सकता है कि हां, शिवसेना ने खुद को बदल दिया है। चाहे हनुमान चालीसा पढ़ने पर विवाद हो या औरंगजेब की मजार को सुरक्षा देने वाला विवाद हो, मस्जिदों पर लाउडस्पीकर बैन करने का मामला हो या फिर पालघर में साधुओं की हत्या और कंगना रनौत के घर तोड़ने का मामला हो। हर बार शिवसेना हिंदुत्व की रेस में पिछड़ गई। यहां तक की जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद शिवसेना ने इसका उस तरह से स्वागत नहीं किया जैसे बाला साहेब ठाकरे के रहते होता। यहां तक वीर सवारकर पर कांग्रेस के हमलों का जवाब भी शिवसेना ने अच्छे तरीके से नहीं दिया। इन तमाम उदाहरणों को देखकर ये तो कहा जा सकता है कि सत्ता में आने के बाद शिवसेना बदल चुकी थी।
ये सवाल इसलिए क्योंकि बागियों ने हिंदुत्व के मुद्दे पर ही शिवसेना से बगावत की है। बागियों का आरोप है कि कांग्रेस और एनसीपी, शिवसेना को खत्म करना चाहती है। जिस मराठी मानुष और हिंदुत्व के मुद्दे पर शिवसेना का जन्म हुआ था। अब वो शिवसेना की पहचान नहीं रही। इसलिए जरूरी है कि इस सरकार से निकला जाए। बात सिर्फ सरकार से निकलने की नहीं हुई, बागियों ने हिंदुत्व के मुद्दे पर बीजेपी का साथ दिया।
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