ब्राह्मण वोट को लुभाने की कवायद, क्‍या बसपा का सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूला फिर होगा कामयाब?

देश
श्वेता कुमारी
Updated Jul 25, 2021 | 14:45 IST

बसपा का सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला 2007 में खूब कामयाब रहा था और पार्टी 2022 के चुनाव के चुनाव में उसी सफलता को दोहराने की कोशिश में जुटी हुई है। आखिर कितना कामयाब होगा बसपा का ये फॉर्मूला?

बसपा प्रमुख मायावती
बसपा प्रमुख मायावती  |  तस्वीर साभार: PTI
मुख्य बातें
  • बसपा 2007 में जब यूपी की सत्‍ता में आई थी तो इसमें ब्राह्मण वोटों की अपनी अहमियत थी
  • पार्टी अब डेढ़ दशक बाद उसी राजनीतिक समीकरण के सहारे सफलता दोहराना चाहती है
  • अयोध्‍या में 'प्रबुद्ध वर्ग विचार संगोष्‍ठी' का आयोजन कर पार्टी ने अपनी राजनीतिक दिशा तय कर दी है

नई दिल्‍ली : उत्‍तर प्रदेश में साल अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर सियासी गतिविधियां तेज हो गई हैं, जिसमें सभी राजनीतिक दल अधिक से अधिक वोटर्स और समाज के उस तबके को लुभाने की कवायद में जुट गए हैं, जो उनकी जीत में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का 'सोशल इंजीनियरिंग' का फॉर्मूला भी ऐसा ही है, जिसके जरिये वह एक बार फिर से राज्‍य की सत्‍ता में वापसी के लिए जोर लगा रही है। अयोध्या में 23 जुलाई को शंखध्वनि और वेद मंत्रोच्‍चार के बीच बसपा के 'प्रबुद्ध वर्ग विचार संगोष्ठी' का आयोजन इसी दिशा में बढ़ाया गया कदम है।

बसपा नेताओं और कार्यकर्ताओं ने इस सदौरान 'जय भीम-जय भारत' के अपने चिरपरिच‍ित नारों के अतिरिक्‍त 'जयश्रीराम' और 'जय परशुराम' के नारों का भी उद्घोष किया, जो बसपा के किसी सम्‍मेलन में संभवत: पहली बार लगे। इन नारों ने 2022 के विधासनसभा चुनाव को लेकर एक तरह से बसपा की राजनीतिक दिशा तय कर दी है। पार्टी से ब्राह्मणों को जोड़ने की जिम्‍मेदारी बसपा महासचिव सतीश चंद्र मिश्र को दी गई है, जिन्‍होंने पहले भी 2007 में इसी राजनीतिक समीकरण के आधार पर बसपा को सत्‍ता में लाने में अहम भूमिका निभाई थी और यह प्रयोग सियासत में 'सोशल इंजीनियरिंग' के नाम से लोकप्रिय हो गया।

2007 की सफलता को दोहराने की कोशिश

बसपा ने 2007 में ब्राह्मणों को अपने साथ जोड़ने के लिए 'सर्व समाज' का नारा दिया था। हालांकि शुरुआत में किसी को भी इस राजनीतिक समीकरण की सफलता को लेकर बहुत उम्‍मीद नहीं थी, लेकिन जब नतीजे आए तो इसने राजनीतिक पंडितों को भी चौंका दिया। अब करीब डेढ़ दशक बाद 2022 के विधानसभा चुनाव के लिए भी बसपा ने उसी तरह ब्राह्मणों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश की है और अपने इस अभियान की शुरुआत के लिए उसने जिस तरह अयोध्‍या का चयन किया, उसने भी साफ कर दिया कि यूपी विधानसभा चुनाव में पार्टी की दिशा क्‍या होगी।

अयोध्‍या के मंच से बसपा महासचिव सतीश चंद्र मिश्र स्‍पष्‍ट मथुरा, काशी (वाराणसी) और चित्रकूट में भी ऐसे सम्‍मेलनों के आयोजन का ऐलान कर चुके हैं, जिससे जाहिर है कि बसपा ब्राह्मणों को अपने साथ जोड़ने में किस गंभीरता से जुटी हुई है। बसपा पहले भी कई अवसरों पर बीजेपी की मौजूदा सरकार में ब्राह्मणों की उपेक्षा का मसला उठा चुकी है। पार्टी ने प्रदेश में हुई कई मुठभेड़ों में ब्राह्मणों के मारे जाने का मसला भी उठाया, जिनमें से एक नाम विकास दूबे जैसे कुख्‍यात अपराधी का भी है। इसके जरिये पार्टी ने आरोप लगाया कि बीजेपी की अगुवाई वाली मौजूदा सरकार ब्राह्मण विरोधी है। 

ब्राह्मण वोटों को लुभाने की कवायद

यूपी में ब्राह्मण वोट की अहमियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां तकरीबन हर पार्टी इस वर्ग को लुभाने की कवायद में जुटी है। हाल ही में जितिन प्रसाद के कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल होने को भी इसी नजरिये से देखा गया। कांग्रेस में रहते हुए उन्‍होंने ब्राह्मण चेतना मंच का भी गठन किया था, लेकिन अब जब वह कांग्रेस छोड़ बीजेपी का दामन थाम चुके हैं, इसे ब्राह्मण वोट को लुभाने की बीजेपी के कवायद के तौर पर देखा जा रहा है, जिसे 2017 के चुनाव में तो ब्राह्मणों का भरपूर समर्थन मिला, लेकिन आगे चलकर नाराजगी और असंतोष की स्थिति भी देखने को मिली।

यूपी में ब्राह्मण वोट करीब 8-10 फीसदी हैं और ऐसे में तकरीबन हर पार्टी उन्‍हें अपने साथ जोड़ने की कवायद में जुटी हुई है। कई जगह ब्राह्मण मतदाताओं का रुझान उम्मीदवारों की जीत-हार तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बसपा सहित तमाम पार्टियों की नजर उन विधानसभा सीटों पर बनी हुई है। उत्‍तर प्रदेश में पिछले तीन विधानसभा के ट्रेंड से पता चलता है कि जिस पार्टी को इस समुदाय का समर्थन मिला है, वह सत्‍ता में आने में सफल रही है। इस बार यह कवायद कितनी सफल होती है और कौन सी पार्टी सत्‍ता में आने में कामयाब होती है, यह देखने वाली बात होगी। पर इतना तय है कि बसपा हो या बीजेपी, सपा हो या कांग्रेस कोई भी पार्टी ब्राह्मण समाज को लुभाने की कवायद में पीछे नहीं है। 

(डिस्क्लेमर: प्रस्तुत लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और टाइम्स नेटवर्क इन विचारों से इत्तेफाक नहीं रखता है)

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