नई दिल्ली: काबुल एयरपोर्ट की वह तस्वीर कौन भूल सकता है, जिसमें लोग डर की वजह से हवाई जहाज की पहियों पर लटक गए थे। हर कोई यहीं चाहता था कि कैसे भी वह अफगानिस्तान को छोड़ दे। चाहे उसके लिए अपनी जान जोखिम में क्यों न डालना पड़े। इसी घबराहट में लोगों को दुनिया ने आसमान से गिरते हुए भी देखा। आइए जानते हैं कि शनिवार-रविवार के दिन क्या हालात बने, कैसे अफरा-तफरी मची और कैसे बैंक खाली हो गए। उन सब घटनाओं को अफगानिस्तान के गजनफर बैंक के इंडीपेंडेट डायरेक्टर सुनील पंत ने टाइम्स नाउ नवभारत डिजिटल से बयां किया है। सुनील पंत भारतीय नागरिक हैं और एसबीआई के सीजीएम रह चुके हैं। उन्होंने वहां की वर्तमान स्थिति पर अपने विचार प्रस्तुत किए...
उन्होंने कहा, शनिवार से पहले वहां पर सब सामान्य था। क्योंकि उस समय तक ऐसा माना जा रहा था कि तालिबान को काबुल तक पहुंचने में 2-3 महीने लग सकते हैं। तब तक कोई समझौता हो जाएगा। क्योंकि ऐसी उम्मीद थी कि तत्कालीन राष्ट्रपति अशरफ गनी अगर सत्ता छोड़ेंगे तो एक समझौते के तहत छोड़ेंगे और वह समझौता दोहा में चल रही बैठक के जरिए तय होगा। उसके बाद अंतरिम व्यवस्था बनेगी और सत्ता का हस्तांतरण आसानी से हो जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, शनिवार को इस तरह की अफवाहें उड़ने लगी कि गनी जल्द ही देश छोड़कर भाग जाएंगे। ऐसे में लोगों में घबराहट फैल गई।
कॉन्ट्रैक्टर व्यवस्था चरमरा गई
देखिए अफगानिस्तान एक छोटी और अल्प विकसित अर्थव्यवस्था है। और 2001 से अफगानिस्तान और नाटो की सेना वहां पर सब मैनेज कर रही थी। जो कि कांट्रैक्टरों के जरिए होता था। यहां तक की वहां पर आंतरिक सुरक्षा का एक बड़ा हिस्सा इन्हीं कॉन्ट्रैक्टर के जरिए संभाला जाता है । इनकी ड्रेस भी काफी अलग होती है। वह या तो आर्मी की जैकेट पहनते हैं या फिर पैर में आर्मी के पैंट पहनते हैं। ये लोग आर्मी के जैकेट और पैंट दोनों एक साथ नहीं पहनते हैं। जिससे पता चल जाता है कि वह कांट्रैक्टर हैं। पूरे अफगानिस्तान में ऐसे 20 हजार के करीब कांट्रैक्टर हैं। जो कि लॉ एंड ऑर्डर और दूसरी जरूरतों का काम देखते हैं। अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना के 11 बड़े बेस थे। जहां पर एयरक्रॉफ्ट मेंटनेंस, गाड़ियों का मेंटनेंस, दुभाषिया आदि का काम यही कांन्ट्रैक्टर करते रहे हैं।
जब अफगानिस्तान पर तालिबान कब्जा करने लगा तो इन कांट्रैक्टरों को यह डर सताने लगा कि नाटो से घनिष्ठता को देखते हुए अब तालिबान इन्हें नहीं छोड़ेगा। इसलिए इन लोगों नेअमेरिका से गुहार लगाई कि हमें यहां से निकाला जाय। इसके बाद यह तय हुआ कि हर देश की सेना (नाटो में जर्मनी, ब्रिटेन आदि की भी सेनाएं शामिल हैं) अपने से जुड़े इन कांट्रैक्टर की समस्याओं का समाधान करेगी।इस आधार पर अमेरिका के हिस्से में करीब 18 हजार कांट्रैक्टर थे। अमेरिका ने तय किया कि इन लोगों को एसआईवी (स्पेशल इमीग्रेशन वीजा) देगा। लेकिन इसे पूरा करने में 3-5 साल लगने की आशंका थी। ऐसे में जब तालिबान ने अचानक कब्जा कर लिया तो भगदड़ मच गई। इसलिए एयरपोर्ट पर दुखद नजारा देखने को मिला।
बैंकों से सारा पैसा निकला, सेंट्रल बैंक गवर्नर भी लापता, वरिष्ठ बैंकरों ने देश छोड़ा
जब इस तरह की स्थिति शनिवार को हुई तो फिर तो पूरी जनता डर गई। लोगों ने बैंकों से अफगानी मुद्रा निकालना शुरू कर दिया। कुछ ही समय में बैंकों के पास मुद्रा का कोष समाप्त हो गया। सेंट्रल बैंक ने भी सहायता करने में अपनी असमर्थता जताई। यही नहीं नहीं कई कमर्शियल बैंकों के विदेशी अधिकारियों ने तो देश छोड़ दिया। इसमें सीईओ लेवल के भी अधिकारी थे। हालात यह थी कि फाइनेंशियल सेक्टर लीडरशिप गायब हो चुकी है। सुनने में यह भी आया कि न्यू काबुल बैंक की कुछ शाखाओं में तो ऐसा माहौल था कि फायरिंग भी करनी पड़ी। रविवार को तो बैंकों के पास करंसी खत्म हो गई। इसके बाद अफगानिस्तान बैंकर्स एसोसिएशन ने सेंट्रल बैंक डा अफगानिस्तान बैंक के अधिकारियों के पास पहुंचे। लेकिन गवर्नर उपलब्ध नहीं थे। और उनके नीचे स्तर के अधिकारी करंसी देने की स्थिति में नहीं थे। इसे देखते हुए बैंकों को पहले दो दिन और फिर एक हफ्ते के लिए बंद कर दिया गया है। लेकिन हालात देखते हुए यही लग रहा है कि बैंकिंग सेक्टर के लिए काफी बुरे दिन आने वाले हैं।
डॉलर खत्म, विदेश में खाते फ्रीज
घबड़ाहट ऐसे थी कि लोगों ने डॉलर की भी खरीदारी बेहिसाब कर डाली। ऐसे में डॉलर भी खत्म हो चुका है। उसका एक्सचेंज रेट जो सामान्य समय में एक डॉलर 78 अफगानी करंसी के बराबर था और 98 तक पहुंच चुका है। साथ ही ऐसी भी खबरें आ रही हैं कि डीएबी के जो दूसरे देशों में डिपॉजिट हैं, उन्हें भी फ्रीज कर दिया गया है। क्योंकि अब अफगानिस्तान पर एक आतंकी संगठन तालिबान का कब्जा है। इस वजह से एफएटीएफ इस तरह के कदम उठा सकता है। वेस्टर्न यूनियन तक ने रेमिटेंस रोक दी है।
बैंकों में 27 फीसदी महिला कर्मचारी, कर्ज डूबने का डर
अफगानिस्तान में करीब 27 फीसदी महिला कर्मचारी काम करती हैं। और तालिबान भले ही लाख कहें कि महिलाओं को नौकरी करने दी जाएगी। लेकिन उस पर भरोसा होना बहुत मुश्किल है। ऐसे में आने वाले दिनों में बैंकिंग आपरेशन की समस्या आने वाली है। इसके अलावा सारा बिजनेस ठप हो गया है। चूंकि अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था अनुदान आधारित और नाटो तथा कांट्रैक्टर्स के वेतन और दूसरे पेमेंट पर काफी निर्भर है। ऐसे में बैंकों के पास पैसा नहीं आने वाला है। जब पैसा नहीं आएगा तो उनके भुगतान करना भी मुश्किल हो जाएगा। इसके अलावा बैंकों से लोगों ने काफी पैसा निकाल लिया है। साथ ही जो कर्ज उन्हें दिए वह भी लौटने की संभावना कम दिख रही है। ऐसे में एनपीए 40-50 फीसदी तक पहुंच सकता है।
बैंकों की पहले से ही हालत खराब
अफगानिस्तान में वैसे भी आधुनिक बैंकिंग सेक्टर केवल सही तरीके से 10-15 साल पुराना है। ऐसे में बैंक अभी बहुत पेशेवर तरीके से काम नहीं करते हैं। वहां पर ज्यादातर परिवार आधारित बैंक हैं। जिनका मुख्य मकसद अपने बिजनेस के लिए आसानी से पैसा जुटाना है। इसीलिए 10-12 बैंकों में केवल तीन बैंक ही ऐसे हैं जो बेहतर स्थिति में हैं। इसमें अफगान इंटरनेशनल बैंक, गजनफर बैंक, बैंक-ए-मिली है जो बेहतर स्थिति में हैं। अभी तक भारत की साख और उनके पेशेवर लोगों को देखते हुए भारतीय बैंकर्स की काफी मांग रहती है। लेकिन अब शायद कोई वहां नहीं जाना चाहिए। ऐसे में पाकिस्तान के बैंकरों की मांग बढ़ सकती है।
सूखा बनेगा परेशानी
इस समय वहां पर सूखे के हालात हैं। और जब आप पूरी दुनिया से कट जाएंगे तो लोगों के लिए जीवनयापन करना बहुत मुश्किल है। पिछले बार जब सूखा पड़ा था तो उस समय भारत ने चाबहार बंदरगाह के जरिए 75 हजार टन गेहूं मदद के लिए पहुंचाई थी। लेकिन इस बार क्या होगा, किसी को पता नहीं है।
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