BJP In Bihar After Nitish Setback: लगातार दूसरे राज्यों में सत्ता छीन रही भाजपा के लिए बिहार का झटका बड़ा सबक है। नीतीश कुमार ने एक झटके में भाजपा को न केवल राज्य की सत्ता से बेदखल कर दिया, बल्कि राजद से हाथ मिलाकर ऐसे समीकरण तैयार कर लिए हैं, जो भविष्य में मोदी-अमित शाह की जोड़ी को बड़ी परेशानी में डाल सकते हैं। बिहार में भाजपा के सामने कुछ उसी तरह की चुनौती खड़ी हो गई है, जैसी 2019 में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के एक साथ आने से खड़ी हुई थी। लेकिन उम्मीदों के विपरीत 2019 के लोक सभा चुनाव में भाजपा ने बुआ-भतीजे (अखिलेश यादव और मायावती) की जोड़ी पटखनी दे दी थी। अब सवाल उठता है कि क्या ऐसा वह बिहार में कर पाएगी, क्योंकि अगर वह ऐसा नहीं कर पाती है तो 2024 के लोकसभा चुनाव और 2025 के विधान सभा चुनाव में भाजपा के लिए बड़ी मुश्किल खड़ी होने वाली है।
नीतीश के बिना भाजपा को होता है बड़ा नुकसान
बिहार में अब तक का अगर रिकॉर्ड देखा जाय, तो जब से भाजपा और जनता दल (यू) साथ आए, दोनों को फायदा मिला है। लेकिन जब इनका गठबंधन टूटा तो सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा को हुआ है। साल 2015 के विधानसभा चुनाव से पहले जब भाजपा और जद (यू) का 17 साल पुराना रिश्ता टूटा तो, राजद-जद(यू)-कांग्रेस के महागठबंधन के मुकाबले भाजपा अकेले चुनाव लड़ी थी। इन चुनाव में महागठबंधन को 42 फीसदी वोट मिले। जबकि एनडीए को करीब 30 फीसदी वोट मिले। राजद को 80 सीटें, जद(यू) को 71 और कांग्रेस को 27 सीटों पर जीत हासिल हुई। वहीं भारतीय जनता पार्टी को 53 सीटें ही मिल पाईं। लेकिन 2020 में जब जद (यू) और भाजपा फिर से साथ आएं तो समीकरण ही बदल गया। और ऐसा पहली बार हुआ कि भाजपा को जद (यू) से भी ज्यादा सीटें मिंली। भाजपा को 77, जद (यू) को 45 सीटें मिल गईं।
बिहार में जातिगत समीकरण हावी
बिहार की राजनीति को अगर देखा जाय तो 1990 की मंडल राजनीति ने वहां की राजनीति को पूरी तरह से बदल दिया। और इस बदली राजनीति में पिछड़े वर्ग के पास सत्ता की चाबी पहुंच गई। इसके बाद नीतीश कुमार ने अति पिछड़े की राजनीति के जरिए एक नए वोट बैंक को खड़ा कर दिया। जिसमें महादलित और महिलाओं का भी वोट बैंक नीतीश को बिहार में काफी मजबूत बनाता है।
बिहार में मुस्लिम-यादव की करीब 31 फीसदी आबादी है। इसके अलावा कोइरी8 फीसदी ,मुसहर 5 फीसदी, कुर्मी करीब 4 फीसदी है। इसमें लव कुश (कुर्मी, कुशवाहा, कोइरी),महादलित, महिलाएं जद (यू) के साथ तो मुस्लिम-यादव राजद, जबकि सवर्ण वर्ग को भाजपा का परंपरागत वोट बैंक माना जाता है।
भाजपा के पास मजबूत कद का नेता नहीं
बिहार में भाजपा की राजनीति को देखा जाय तो वह शुरू से जार्ज फर्नांडीज और फिर नीतीश कुमार के साये में रही है। उसके पास नीतीश कुमार को टक्कर देने के लिए मजबूत स्थानीय नेता नहीं है। भाजपा-जद(यू) के दौर में सुशील मोदी ही पार्टी के सबसे कद्दावर नेता रहे थे। जो कि 2020 के बाद राज्य की राजनीति से दूर कर दिए गए और राज्य सभा सदस्य बन गए। इस बीच भाजपा ने बिहार के जातिगत समीकरण को देखते हुए तारकेश्वर प्रसाद और रेणु देवी ने भाजपा कोटे नीतीश सरकार में उप मुख्यमंत्री बनाया था। दोनों नेता ओबीसी वर्ग से आते हैं। लेकिन इन 2 साल में नीतीश कुमार के मुकाबले उन्होंने अपनी कोई मजबूत छवि नहीं बनाई।
यूपी जैसी अनुकूल परिस्थितियां नहीं
जिस तरह बिहार में जातिगत राजनीति हावी रही है, वैसी ही परिस्थितियां उत्तर प्रदेश में भी है। लेकिन 2014 के बाद से भाजपा ने उन सभी समीकरणों को ध्वस्त कर राज्य में भारी बहुमत से न केवल सरकार बनाई है बल्कि लोक सभा चुनाव में भी सपा-बसपा और कांग्रेस को पटखनी दी है। भाजपा ने न केवल 2017 के विधान सभा चुनाव में सपा और कांग्रेस के गठबंधन को आसानी से हराया बल्कि 2019 के लोक सभा चुनाव में सपा-बसपा के गठबंधन को हराया। और 2022 के विधान सभा चुनाव में सपा और जाति आधारित छोटे दलों के गठबंधन को भी हराया। दावा यह रहता है कि भाजपा ने कल्याणकारी योजनाओं के जरिए सभी वर्गों में अपना वोट बैंक खड़ा किया है। जिसका फायदा उसे मिलता है।
लेकिन अगर बिहार को देखा जाय तो भाजपा जद(यू) के साथ पिछले 15 साल से सत्ता में रही है। ऐसे में सत्ता विरोधी लहर का फायदा उसे चुनावों में नहीं मिला है। अगर 2025 के चुनावों में भाजपा का महागठबंधन से मुकाबला होता है तो सत्ता विरोधी लहर उसका हथियार बन सकती है। इस बीच 2024 में लोकसभा चुनाव होने हैं। लोक सभा में अब तक जद (यू) और राजद ने मिलकर, भाजपा के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ा है। ऐसे में 2024 की लड़ाई रोचक हो सकती है। हालांकि इस बीच भाजपा के लिए बिहार में नए सिरे से अपनी जमीन को मजबूत करने का मौका है।
Times Now Navbharat पर पढ़ें India News in Hindi, साथ ही ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज अपडेट के लिए हमें गूगल न्यूज़ पर फॉलो करें ।