नई दिल्ली। पहले राहुल गांधी और अब सोनिया गांधी ने विपक्षी नेताओं को एक जुट करने के लिए मीटिंग बुलाई है। पिछले 10 दिनों में गांधी परिवार के तरफ से यह दूसरी बड़ी कवायद है। यह बैठकें इसलिए भी खास हो जाती हैं, क्यों पार्टी में कपिल सिब्बल के नेतृत्व में एक धड़ा अलग से गांधी परिवार के नेतृत्व को चुनौती दे रहा है। ऐसे में सोनिया गांधी द्वारा सीधे मोर्चा संभालने के कई मायने हैं।
जाहिर है सोनिया गांधी यह समझ चुकी है कि शरद पवार, ममता बनर्जी, लालू प्रसाद यादव जैसे वरिष्ठतम नेताओं को अपने खेमे में लाने के लिए उन्हें खुद कमान संभालनी होगी। क्योंकि अगर 2024 के चुनाव के पहले कांग्रेस के नेतृत्व में एक मजबूत मोर्चा नहीं बना तो पार्टी के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी हो जाएगी। पार्टी पहले ही पिछले दो लोक सभा चुनावों में 44 और 52 सीटों पर आ चुकी है। ऐसे में वह किसी भी हालत इससे खराब प्रदर्शन नहीं करना चाहेगी।
अंदर और बाहर दोनों जगह मिल रही है चुनौती
कांग्रेस के लिए यह समय काफी चुनौतीपूर्ण है। एक तरफ उसे लोक सभा चुनावों में हार का सामना करना पड़ा, वहीं राज्यों में भी उसकी हालत पतली ही होती जा रही है। मई में हुए विधान सभा चुनाव की बात की जाय तो पार्टी को सभी राज्यों में झटका लगा है। बंगाल में पहली बार ऐसा हुआ कि पार्टी एक भी विधान सभा सीट नहीं जीत पाई। जबकि केरल में वह सत्ता विरोधी लहर का फायदा नहीं उठा पाई और वाम दलों की दोबारा वापसी हो गई। सबसे ज्यादा असम में पार्टी को सत्ता में वापसी की उम्मीद थी लेकिन वहां भी भाजपा लगातार दूसरी बार चुनाव जीत गई। ऐसे ही पुडुचेरी में पहले तो पार्टी टूट गई और फिर सत्ता से बाहर हो गई। थोड़ी राहत तमिलनाडु में ही मिली जहां एआईएडीएमके के साथ गठबंधन का उसे फायदा मिला और सत्ता में पहुंच गई। लेकिन वहां भी पार्टी का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है।
इसके अलावा पार्टी मध्य प्रदेश में पुडुचेरी की तरह सत्ता गंवा चुकी है और कर्नाटक में भी जेडी (एस) के साथ गठबंधन टूटने से सत्ता से बाहर हो गई। वहीं राजस्थान में सचिन पायलट और अशोक गलहोत की गुटबाजी और पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू की गुटबाजी ने मुश्किलें बढ़ा दी हैं। साथ ही 2019 के लोक सभा चुनाव की हार के बाद से पार्टी अभी तक स्थायी अध्यक्ष नहीं चुन पाई है। और ऊपर से कपिल सिब्बल, गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा जैसे ग्रुप-23 के नेताओं की चिट्ठी ने पार्टी के अंदर की गुटबाजी को खुल कर सामने ला दिया है।
सोनिया ने खुद किया फोन
असल में लगातार मिल रही हार के बाद से पार्टी में नेतृत्व के प्रति असंतोष फैलता गया है। इसी वजह से न केवल सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष बनकर पार्टी को एक-जुट करने की कोशिश में हैं। वहीं अब उन्होंने विपक्षी नेताओं को जोड़ने का बीड़ा उठा लिया है। बैठक प्रभावशाली रहे इसलिए सोनिया गांधी ने खुद एनसीपी प्रमुख शरद पवार, बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी, महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री और शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे को खुद फोन कर करके मीटिंग का न्यौता दिया है। जाहिर है सोनिया गांधी इस मीटिंग के जरिए यह संदेश देना चाहती है कि कांग्रेस ही सभी विपक्षी नेताओं को अपने छत के नीचे ला सकती है।
20 अगस्त को होने वाली इस वर्चुअल मीटिंग के लिए झारखंड के मुख्य मंत्री हेमंत सोरेन और तमिलनाडु के मुख्य मंत्री एम.के.स्टालिन को भी न्यौता दिया गया है। नेतृत्व के सवाल पर कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता गौरव वल्लभ ने टाइम्स नाउ नवभारत डिजिटल से बात करते हुए कहते है "यह बात विपक्षी दल भी कहते हैं कि कांग्रेस के बिना कोई मजबूत मोर्चा नहीं बन सकता है, राहुल गांधी उसका नेतृत्व कर रहे हैं।"
राहुल की मीटिंग में दूसरी पंक्ति के आए थे नेता
3 अगस्त को जब राहुल गांधी ने नाश्ते पर विपक्षी नेताओं को बुलाया था, तो उसमें शरद पवार, ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे, अखिलेश यादाव जैसे नेता नहीं शामिल हुए थे। उस बैठक में इन दलों ने अपने दूसरी पंक्ति के नेताओं को भेजा था। ऐसे में यह भी सवाल उठने लगा था कि क्या शरद पवार, ममता बनर्जी, राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार करेंगे। इसे देखते सोनियां गांधी का यह दांव न केवल पार्टी के बाहर लोगों को संदेश देगा, बल्कि ग्रुप-23 के नेताओं को भी संदेश देगा। असल में कपिल सिब्बल की डिनर पार्टी में शरद पवार, लालू प्रसाद यादव और अखिलेश यादव खुद शामिल हुए थे।
अभी भी यूपीए अध्यक्ष हैं सोनिया गांधी
जिस तरह से बंगाल, असम, केरल सहित पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन खराब रहा है। उसके बाद यह मांग उठती रही है कि यूपीए अध्यक्ष पद की कमान शरद पवार या ममता बनर्जी को दे दी जाय। ऐसे में किसी भी हालत में कांग्रेस ऐसा नहीं चाहेगी। क्योंकि जिस भी व्यक्ति को यूपीए अध्यक्ष की कमान मिलेगी, वह विपक्ष की तरफ से प्रधान मंत्री का सबसे बड़ा दावेदार बन जाएगा। इसलिए सोनिया और राहुल गांधी के लिए बेहद अहम है कि वह हर हालत में कमान कांग्रेस के पास ही रखे। इसके अलावा 2004-2014 तक सोनिया के नेतृत्व में यूपीए ने केंद्र में सरकार चलाई थी। इसलिए उनकी दावेदारी अभी भी अहम है।
क्या कहते हैं राजनीतिक विश्लेषक
सीएसडीएस (सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपमिंग सोसाइटीज) के प्रोफेसर संजय कुमार कहते हैं "देखिए बैठकों की यह बात जितनी आसान दिख रही है, उतनी आसान नहीं है। कांग्रेस को अपनी अंदरुनी चुनौतियों से उबर कर एक मजबूत नेतृत्व देना होगा। पिछले विधान सभा चुनावों को देखिए तो राहुल की तुलना में राज्यों के क्षत्रप भाजपा के लिए ज्यादा परेशानी बने हैं। पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तेलंगाना, तमिलनाडु, दिल्ली, यहां तक कि बिहार के चुनाव इसके प्रमाण हैं। लेकिन यह बात भी नहीं याद रखना चाहिए कि देश में अभी भी 225 लोक सभा सीटें ऐसी हैं, जहां पर भाजपा की सीधी टक्कर कांग्रेस से है। ऐसे में विपक्षी दल किसी भी हालत में कांग्रेस को अलग-थलग कर दिल्ली की सत्ता हासिल नहीं कर सकते हैं। "
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