'ओपिनियन इंडिया का' में बात उस संकट की जिसकी आहट का अहसास जानकारों को शायद कई साल से था, वो संकट आ गया है। हार्ट ऑफ एशिया कहा जाने वाला अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा फिर हो गया है। तालिबान की हुकूमत ने पूरी दुनिया की नींद उड़ा दी है। अफगानिस्तान के संकट, अफगानिस्तान के भारत से संबंध और इस नए संकट के मायने क्या हैं?
बीते 48 घंटे में क्या क्या हुआ?
अफगानिस्तान से आज कुछ ऐसी तस्वीरें आई, जो न केवल रोंगटे खड़ी करने वाली हैं बल्कि ये बताती है कि अफगानिस्तान में लाखों लोग जान की परवाह किए बगैर किसी भी तरह बस देश छोड़ देना चाहते हैं। लेकिन, अफगान संकट ये भी इशारा करता है कि अफगानिस्तान में जान कितनी सस्ती हो गई है, जबकि सच यही है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान से लौटने का जो फैसला किया है, उसके पीछे अमेरिकी नागरिकों की जान की ऊंची कीमत है।
इस वाक्या को जानें
अमेरिका-ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में जान की कीमत क्या होती है, ये बताने के लिए एक छोटा सा किस्सा। ये किस्सा 2009 का है। ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड में एक स्कूली छात्र ने खुदकुशी की कोशिश की। 'फेसबुक' पर स्टेटस मैसेज के रुप में उसने लिखा-"मैं अब बहुत दूर जा रहा हूं। लोग मुझे खोजेंगे।" संयोग से उस छात्र की अमेरिका में रह रही फेसबुक फ्रेंड ने ये मैसेज पढ़ लिया। उसे नहीं मालूम था कि छात्र ब्रिटेन में कहां रहता है। लड़की ने अपनी मां को इस बारे में फौरन बताया। मां ने मैरीलेंड पुलिस को सूचित किया। पुलिस ने व्हाइट हाउस के स्पेशल एजेंट से संपर्क साधा और उसने वाशिंगटन में ब्रिटिश दूतावास के अधिकारियों से। उन्होंने ब्रिटेन के मेट्रोपॉलिटन पुलिस से संपर्क किया और इस बीच छात्र के घर का पता लगाकर थेम्स वैली के पुलिस अधिकारी उसके घर जा पहुंचे। छात्र नींद की कई गोलियां निगल चुका था। लेकिन आधिकारियों ने आनन-फानन में छात्र को अस्पताल पहुंचाया, जहां आखिरकार उसकी जान बच गई।
लेकिन गरीब, कमजोर और विकासशील देशों में नागरिकों की जान को लेकर ऐसी सोच नहीं है। आपको एक आंकड़े के जरिए बताते हैं कि आखिर किस देश में जान की कितनी कीमत है। सीधे शब्दों में कहें तो अमेरिका-भारत और अफगानिस्तान हर साल अपने नागरिकों पर औसतन कितने रुपए खर्च करते हैं।
प्रति व्यक्ति सरकारों का खर्च
अमेरिका- 14,78,000
भारत- 23,401
अफगानिस्तान- 9990
अफगानिस्तान में आज जो कुछ हो रहा है, क्या दुनिया के बड़े देशों को इसकी जरा भी भनक नहीं थी। क्या तालिबान के लौटने की अमेरिका-ब्रिटेन जैसे देशों को कतई आशंका नहीं थी। इस सवाल का जवाब है बिल्कुल थी। इसे आप ISI के पूर्व चीफ हामिद गुल का 10 साल पुराना एक बयान पढ़कर समझ सकते हैं। उन्होंने कहा था कि अमेरिका इतिहास है। करजई इतिहास हैं। तालिबान ही भविष्य है। हामिद गुल का बयान बताता है कि पाकिस्तान को पूरा भरोसा था कि अमेरिकी सैनिकों के लौटते ही तालिबान की वापसी होगी। 2010 में अलजजीरा को दिए एक इंटरव्यू में हामिद गुल ने जो कहा था इससे आपको ये भी समझ आएगा कि अमेरिका ने अफगानिस्तान में क्या गलती की, जिसे शायद अब वो नहीं मान रहा।
उन्होंने कहा था, 'अमेरिका हार चुका है। ऐसा नहीं है कि उनकी ताकत कम हो गई है, दरअसल उनके लोग अब बीमार हैं और थक चुके हैं। वहां अजीब थकावट है, और यही उनके लिए चिंता का विषय है। अमेरिका अफगानिस्तान पर प्रभुत्व बनाए रख सके, इसका कोई रास्ता नहीं है। आम नागरिकों की मौत ने अफगानिस्तान में तालिबान आंदोलन को मजबूत किया है। करीब 80 फीसदी लोग उनका समर्थन करते हैं। अफगानिस्तान के लोग भ्रष्टाचार से परेशान हो चुके हैं। अमेरिकी लोग अपने सैनिकों की मौत बर्दाश्त नहीं कर सकते, ये उनकी समस्या है। और इस वजह से अमेरिका ने भाड़े के सैनिक अफगानिस्तान में लगाए हैं। ये भाड़े के सैनिक सिर्फ अमेरिका से नहीं हैं बल्कि लोकल लोग भी हैं। अमेरिकी सैनिक और नाटो का काम सिर्फ लोगों की आंख में धूल झोंकने का है। उनके कथित कारनामों का अमेरिका में राजनीतिक मकसद हो सकता है लेकिन अफगानिस्तान में कोई राजनीतिक उद्देश्य नहीं है। वे कह रहे हैं कि वे लोग अफगान नागरिकों की सुरक्षा कर रहे हैं, लेकिन उन्होंने कइयों को अफगानिस्तान के कड़े मौसम में बेघर कर दिया है।'
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