तृतीया का श्राद्ध मुख्यत: बोधगया स्थित धर्मारण्य, मातंगवापी व सरस्वती वेदी पर करने का विधान है। यहीं पर पिंडदान किया जाता है, लेकिन आप यहां न पहुंच सकें तो आप इस श्राद्ध को कहीं से भी कर सकते हैं। मान्यता है कि बोधगया में जब भी पिंडदान किया जाता है तो इसके बाद मतंगेश्वर महादेव का दर्शन व पूजन जरूर करना चाहिए। तृतीया का श्राद्ध करने के बाद आप मन में भी मतंगेश्वर महादेव का स्मरण कर सकत हैं। मतंगेश्वर महादेव का दर्शन धर्मराज युधिष्ठिर ने भी महाभारत युद्ध के बाद अपने पूर्वजों का श्राद्ध कर्म करने के बाद किया था। यहां स्थित महाबोधि मंदिर में भी पूजन व दर्शन का विधान है।
पूर्वज अपने अग्रजों की ओर देखते हैं
पितृपक्ष ही वह समय होता है जब मृत आत्माओं को धरती पर आने और अपने परिजनों से मिलने का अवसर मिलता है। पूर्वज अपने अग्रजों की ओर आस भरी निगाहों से देखते हैं और उनसे जल व पिंडदान की आस करते हैं। यहा मिले तर्पण और दान-पुण्य से एक साल तक वह पितृलोक में शांति से रहते हैं और अपने अग्रजों को सुख, शांति, समृद्धि का आशीर्वाद दे कर जाते हैं।
इस बार है 17 दिनों का है श्राद्ध पक्ष
श्राद्ध कर्म अपरान्ह काल में सम्पन्न करना चाहिए। 1 सितम्बर को पूर्णिमा अपरान्ह व्यापिनी थी इसलिए मंगलवार से पार्वण श्राद्ध शुरू हुए हैं। भाद्र पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण पक्ष के सभी श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। अपरान्ह व्यापिनी तिथि ही श्राद्ध कर्म का सही समय मना गया है, जो निरन्तर सोलह दिनों तक चलेगा, लेकिन तिथि के दो दिन होने के कारण इस बार श्राद्धपक्ष 17 दिनों का हो गया है।
जानें, श्राद्ध में ये तीन मानें गए हैं अत्यंत पवित्र
पुत्री का पुत्र अर्थात दौहित्र, कुतप समय, अर्थात अपरान्ह समय व तिल। ये तीन यदि श्राद्धकर्म में शामिल हों तो इसे पवित्र और फलदायी श्राद्ध कोई और नहीं होता। श्राद्ध कर्म हमेशा शांति, प्रसन्नता व श्रद्धा से करना चाहिए। पितृ पक्ष के ये सोलह दिन यज्ञों के समान माने गए हैं और जब भी पितरों की तिथि आए उस दिन उनका श्राद्धकर्म करना यज्ञ तुल्य माना गया है। पितरों की मृत्यु तिथि पर दिया गया भोजनादि पदार्थ अक्षय होता है अतः इस काल मे श्राद्ध ,तर्पण,दान,,पुण्य आदि अवश्य करना चाहिए। इससे आयु, पुत्र, यश,कीर्ति,समृद्धि, बल, श्री,सुख,धन,धान्य की प्राप्ति होती है।
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