sindoor khela: पश्चिम बंगाल में हर साल विजय दशमी के मौके पर मां दुर्गा की धूमधाम से पूजा की जाती है और इसके बाद उनकी मूर्ति का विसर्जन किया जाता है। इस दिन बंगाली समुदाय के लोग मां दुर्गा को सिंदूर अर्पित करते हैं। साथ ही भव्य पंडाल में मौजूद सभी लोगों को सिंदूर लगाते हैं और दुर्गा पूजा की शुभकामनाएं देते हैं। इस परंपरा को 'सिंदूर खेला' के नाम से जाना जाता है। इस साल मां दुर्गा का ये महोत्सव 01 अक्टूबर से लेकर 05 अक्टूबर के बीच मनाया जाएगा।
क्यों खास होती है दुर्गा पूजा?
ऐसी मान्यताएं हैं कि नवरात्रि में मां दुर्गा पूरे 10 दिन के लिए अपने मायके आती हैं। इस दौरान मां दुर्गा की उपासना के लिए जगह-जगह पंडाल लगाए जाते हैं और उनकी विशाल मूर्तियों को स्थापित किया जाता है। पंचमी तिथि से मां दुर्गा की पूजा-उपासना की जाती है और अंत में यानी दशमी तिथि के दिन सिंदूर की होली खेलकर उन्हें विदा किया जाता है। बंगाली रिवाज में इसे ही सिंदूर खेला कहा जाता है।
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कैसे निभाते हैं सिंदूर खेला की रस्म?
इस दिन सुहागिन महिलाएं सबसे पहले मां दुर्गा को सिंदूर अर्पित करती हैं। महिलाएं पान के एक पत्ते में सिंदूर लेकर देवी को चढ़ाती हैं। ऐसा कहते हैं कि मां दुर्गा जब मायके से विदा होकर ससुराल जाती हैं तो उनकी मांग सिंदूर से सजानी पड़ती है। इसके बाद सुहागिनें एक-दूसरे को सिंदूर लगाकर एक-दूसरे को दुर्गा पूजा की शुभकामनाएं देती हैं। ऐसा कहते हैं कि ये सिंदूर लगाने से सुहागिनों को सौभाग्यवती होने का वरदान प्राप्त होता है।
कैसे हुई शुरुआत?
दुर्गा महोत्सव पर सिंदूर खेला की परंपरा सदियों से चली आ रही है। बंगाली समुदाय के लोग सिंदूर खेला के साथ धुनुची नृत्य की भी परंपरा निभाते हैं। धुनुची नृत्य करने से मां दुर्गा प्रसन्न होती हैं और सुहागिनों को पति की लंबी उम्र का वरदान देती हैं। इस त्योहार का इतिहास करीब 450 साल पुराना है। इसे मनाए जाने के पीछे यही मान्यता थी कि मां दुर्गा प्रसन्न होकर उनके सुहाग की रक्षा करेंगी। ये त्योहार अब पश्चिम बंगाल के अलावा देश में कई अन्य जगहों पर भी मनाया जाने लगा है।
(डिस्क्लेमर : यह पाठ्य सामग्री आम धारणाओं और इंटरनेट पर मौजूद सामग्री के आधार पर लिखी गई है। टाइम्स नाउ नवभारत इसकी पुष्टि नहीं करता है।)
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