माउंट आबू(राजस्थान). माउंटआबू में अचलगढ़ दुनिया की इकलौती ऐसी जगह है जहां भगवान शिव के अंगूठे की पूजा होती है।भगवान शिव के सभी मंदिरों में उनके शिवलिंग की पूजा होती है लेकिन यहां भगवान शिव के अंगूठे की पूजा होती है। दरअसल भगवान शिव के अंगूठे के निशान मंदिर में आज भी देखे जा सकते हैं।इसमें चढ़ाया जानेवाला पानी कहा जाता है यह आज भी एक रहस्य है।माउंटआबू को अर्धकाशी भी कहा गया है और माना जाता है कि यहां भगवान शिव के छोटे-बड़े 108 मंदिर है।
ये है मंदिर की कहानी
माउंटआबू की पहाड़ियों पर स्थित अचलगढ़ मंदिर पौराणिक मंदिर है जिसकी भव्यता देखते ही बनती है।इस मंदिर की काफी मान्यता है और माना जाता है कि इस मंदिर में महाशिवरात्रि,सोमवार के दिन,सावन महीने में जो भी भगवान शिव के दरबार में आता है। भगवान शंकर उसकी मुराद पूरी कर देते हैं।इस मंदिर की पौराणिक कहानी है कि जब अर्बुद पर्वत पर स्थित नंदीवर्धन हिलने लगा तो हिमालय में तपस्या कर रहे भगवान शंकर की तपस्या भंग हुई।क्योंकि इसी पर्वत पर भगवान शिव की प्यारी गाय नंदी भी थी।लिहाजा पर्वत के साथ नंदी गाय को भी बचाना था।भगवान शंकर ने हिमालय से ही अंगूठा फैलाया और अर्बुद पर्वत को स्थिर कर दिया।नंदी गाय बच गई और अर्बुद पर्वत भी स्थिर हो गया।
प्रसन्न होने पर देते हैं दर्शन
भगवान शिव के अर्बुदांचल में वास करने का स्कंद पुराण में प्रमाण मिलता है।स्कंद पुराण के अर्बुद खंड में ये बात सामने आती है कि भगवान शंकर और विष्णु ने एक रात पूरे अर्बुद पर्वत की सैर करते हैं।माउंटआबू की गुफाओं में आज भी सैकड़ो साधु तप करते है क्योंकि कहते है यहां की गुफाओं में भगवान शंकर आज भी वास करते हैं और जिससे प्रसन्न होते हैं उसे साक्षात दर्शन भी देते हैं।
पहाड़ी के तल पर 15वीं शताब्दी में बना अचलेश्वर मंदिर में भगवान शिव के पैरों के निशान आज भी मौजूद हैं।भगवान शिव के सभी मंदिरों में उनके शिवलिंग की पूजा होती है लेकिन यहां भगवान शिव के अंगूठे की पूजा होती है। यहां भोले अंगूठे के रुप में विराजते हैं और सावन के महीने में इस रूप के दर्शन का विशेष महत्व है।
राजा ने बनवाया था मंदिर के पास किला
आबू पर्वत का केंद्रबिंदु अचलेश्वर महादेव मंदिर यहां का सबसे प्रमुख, स्थापत्य कला से परिपूर्ण ऐतिहासिक मंदिर है। यहां की अनोखी विशेषता है कि यहां भगवान शंकर के अंगूठे की पूजा होती है। गर्भगृह में शिवलिंग पाताल खंड के रूप में दृष्टिगोचर होता है, जिसके ऊपर एक तरफ पैर के अंगूठे का निशान उभरा हुआ है, जिन्हें स्वयंभू शिवलिंग के रूप में पूजा जाता है। यह भगवान देवाधिदेव शिव का दाहिना अंगूठा माना जाता है।पहाड़ी के तल पर 15वीं शताब्दी में बना अचलेश्वर मंदिर में भगवान शिव के पैरों के निशान आज भी मौजूद हैं। मेवाड़ के राजा राणा कुंभ ने अचलगढ़ किला एक पहाड़ी के ऊपर बनवाया था। किले के पास ही अचलेश्वर मंदिर है।
गर्भगृह में स्थापित है दशवातार की मूर्ती
मंदिर परिसर के विशाल चौक में चंपा का विशाल पेड़ अपनी प्राचीनता को दर्शाता है। मंदिर की बायीं बाजू की तरफ दो कलात्मक खंभों का धर्मकांटा बना हुआ है, जिसकी शिल्पकला अद्भुत है। कहते हैं कि इस क्षेत्र के शासक राजसिंहासन पर बैठने के समय अचलेश्वर महादेव से आशीर्वाद प्राप्त कर धर्मकांटे के नीचे प्रजा के साथ न्याय की शपथ लेते थे। मंदिर परिसर में द्वारिकाधीश मंदिर भी बना हुआ है।
गर्भगृह के बाहर वाराह, नृसिंह, वामन, कच्छप, मत्स्य, कृष्ण, राम, परशुराम, बुद्ध व कलंगी अवतारों की काले पत्थर की भव्य मूर्तियां स्थापित हैं।यहां पर भगवान के अंगूठे के नीचे एक प्राकृतिक खड्ढा बना हुआ है। इस खड्ढे में कितना भी पानी डाला जाएं लेकिन यह कभी भरता नहीं है इसमें चढ़ाया जाने वाला पानी कहां जाता है यह आज भी एक रहस्य है। अचलेश्वर महादेव मंदिर परिसर के चौक में चंपा का विशाल पेड़ है मंदिर में बाएं ओर दो कलात्मक खंभों पर धर्मकांटा बना हुआ है। इस क्षेत्र के शासक राजसिंहासन पर बैठने के समय अचलेश्वर महादेव से आशीर्वाद प्राप्त कर धर्मकांटे के नीचे प्रजा के साथ न्याय की शपथ लेते थे।
(सभी फोटोज के लिए साभार - अनिल कुमार ऐरन)
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