साईं एकेश्वरवाद के समर्थक थे और यही कारण था कि वह हमेशा यह कहा करते थे कि सबका मालिक एक है। हर धर्म, जाति और संप्रदाय को साईं यही समझाते थे कि सबका मालिक एक है। इसलिए धर्म, जाति आदि से ऊपर उठकर कार्य करें। साईं लोगों को कर्मकांड और ज्योतिष आदि से दूर रह कर एक-दूसरे का दुख-दर्द दूर करने और समाज में भाईचारा कायम करने का संदेश देते थे। सांई बाबा के बारे में अधिकांश जानकारी श्रीगोविंदराव रघुनाथ दाभोलकर द्वारा लिखित 'श्री सांई सच्चरित्र' से मिलती है। सांई सच्चरित्र सांई बाबा के जिंदा रहते ही 1910 से लिखना शुरू हो चुका था और 1918 तक उनके समाधिस्थ होने तक लिखा गया था।
महाराष्ट्र के पाथरी (पातरी) गांव में सांईं बाबा का जन्म 28 सितंबर 1835 को हुआ था और उनके बचपन का नाम हरिबाबू था। पहली बार साईं 1854 में शिरडी में देखे गए थे तब वह किशोरावस्था में थे और अनुमानत: उम्र 16 साल थी। इसके बाद साई शिरडी छोड़ कर कुछ साल के लिए फकीरों की मंडली के साथ कहीं और चले गए थे और दोबारा जब वह शिरडी लौटे तो उनकी उम्र करीब 25 साल थी। साईं सेल्यु में बाबा के गुरु वैकुंशा के साथ रहते थे। यह हिस्सा हैदराबाद निजामशाही का एक भाग था। भाषा के आधार पर प्रांत रचना के चलते यह हिस्सा महाराष्ट्र में आ गया तो अब इसे महाराष्ट्र का हिस्सा बन गया।
घर पर हुई थी शुरुआती पढ़ाई
सांई बाबा की पढ़ाई की शुरुआत घर से ही हुई थी और उनके पिता वेदपाठी ब्राह्मण थे। उनके सान्निध्य में साईं ने बहु ही कम उम्र में तेजी से वेद-पुराण का ज्ञान पा लिया था और वह कम उम्र में ही वेद पढ़ने-लिखने लगे थे। 7 से 8 वर्ष की उम्र में सांई को पाथरी के गुरुकुल में उनके पिता ने भर्ती किया ताकि वह कर्मकांड सीख कर अपना गुजर-बसर कर सकें। यहां ब्राह्मणों को वेद- पुराण आदि पाठ पढ़ाया जाता था। जब सांई 7-8 वर्ष के थे तो अपने गुरुकुल के गुरु से शास्त्रार्थ करते थे।
वेदों से प्रभावित थे साईं
गुरुकुल में सांई को वेदों की बातें पसंद आईं, लेकिन वे पुराणों से वह कभी सहमत नहीं रहे और पुराणों के कई प्रकरण को लेकर वह अपने गुरु से बहस करते थे। वे पुराणों की कथाओं से संभ्रमित थे और उनके खिलाफ थे। तर्क-वितर्क के साथ वह अपने गुरु के साथ इन विषयों पर चर्चा करते थे और कई बार ऐसा भी होता था कि साईं के तर्क के आगे गुरु भी पेरशान हो जाते थे। वे वेदों के अंतिम और सार्वभौमिक सर्वश्रेष्ठ संदेश 'ईश्वर निराकार है' इस मत को ही मानते थे। अंत में हारकर गुरु ने कहा- एक दिन तुम गुरुओं के भी गुरु बनोगे। सांई ने वह गुरुकुल छोड़ दिया।
गुरुकुल छोड़कर वे हनुमान मंदिर में ही अपना समय व्यतीत करने लगे, जहां वे हनुमान पूजा-अर्चना करते और सत्संगियों के साथ रहते। उन्होंने 8 वर्ष की उम्र में ही संस्कृत बोलना और पढ़ना भी शुरू कर दिया था। उन्हें चारों वेद और 18 पुराणों का ज्ञान हो चुका था।
खंडहर का नाम रखा द्वारका माई
8 वर्ष की उम्र में उनके पिता की मृत्यु के बाद बाबा को सूफी वली फकीर ने पाला और वे अपने साथ उन्हें ख्वाजा शमशुद्दीन गाजी की दरगाह पर इस्लामाबाद ले गए। यहां वे कुछ दिन रहने के बाद उनके जीवन में सूफी फकीर रोशनशाह फकीर का आगमन हुआ और साईं इनके साथ अजमेर आ गए। फकीरों की मंडली के साथ वह देशभर में घूमते रहे और अंत में वह शिरडी में आकर स्थाई रूप से निवास करने लगे। वे जिस खंडहर में रहते थे उसका नाम उन्होंने द्वारका माई रखा था।
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