मां दुर्गा की पूजा देश भर में होती है और माता को प्रसन्न करने के लिए तमाम उपाय किए जाते हैं। बिहार के महाशय डयूढ़ी एक ऐसा गांव हैं जहां प्राचीन समय से दुर्गा पूजा होती आ रही है। यहां प्रतिमा स्थापित कर पूजा अर्चना करके साथ ही एक महीने का मेला भी लगता है। इस मेले और मां दुर्गा का आर्शीवाद पाने के लिए लोग दूर-दूर से यहां पहुंचते हैं। ऐसी मान्यता है कि माता के यहां दर्शन करने भर में लोगों की बिन मांगी मुरादे भी पूरी हो जाती हैं।
मेढ़ चढ़ाने की है परंपरा
नवरात्रि का शुभारंभ 29 सितंबर से हो चुका है। इस दिन हालांकि देश भर में जगह-जगह दुर्गा प्रतिमाओं की स्थापान कर पूजा होती है लेकिन बिहार के भागलपुर के महाशय डयूढ़ी में मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापना के साथ कुछ अलग तरीके से पूजा भी होती है और बहुत बड़ा मेला भी लगता है। प्रतिमा स्थापित कर पूजा-अर्चना के बाद यहां हर घर-घर मेढ़ चढ़ने की परंपरा आज भी कायम है।
बंगाली पद्धति से होती है पूजा
यहां लगने वाली तीन सौ साल पुराने दुर्गा पूजा में बंगाली रीति-रिवाज के साथ पूजा की जाती है। यहां होने वाली दुर्गा पूजा और लगने वाले मेले के लिए किसी तरह का चंदा नहीं लिया जाता।
बंगाल के कारीगर तैयार करते थे पंडाल और मां की प्रतिमा
1975 तक बंगाल के कारीगर ही मां की प्रतिमा और पंडाल का निमार्ण करते थे लेकिन उनकी मृत्यु के बाद वहीं के बाशिंदों ने मां की प्रतिमा और पंडाल सजाने का जिम्मा उठा लिया। बताया जाता है कि 1604 में उनके पूर्वज यहां आए थे और तब से ये पूजा होती चली आ रही है। यही पर पहली बार श्रीराम घोष हुआ था और उसके बाद दुर्गा पूजा की शुरुआत हुई थी।
कंगाली भोज का होता था आयोजन
भागलपुर के लोग दुर्गा पूजा का बेसब्री से इंतजार करते थे।ब यहां नवरात्रि के प्रथम दिन से लेकर दशमी तक पूजा के साथ कंगाली भोज का भी आयोजन होता था। वहीं दस दिन गरीबों के बीच अनाज बांटा जाता था और भूमि तक दान में दी जाती थी। पूजा के दौरान यहां संतों की भीड़ लगती है।
जमींदारी प्रथा के बाद बदला पूजा का स्वरूप
1952 में जमींदारी प्रथा समाप्त होने के बाद यहां होने वाली पूजा में भी काफी बदलाव आएं। यहां आतिशबाजी हुआ करती थी। कंगाली भोज और जमीन दान कि प्रथा भी खत्म हो गई। अब यहां केवल माता की पूजा और मेले की परंपरा ही रह गई है। ऐसा दावा किया है कि कोलकाता की काली व महाशय की डयूढ़ी की पूजा काफी विख्यात है।
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