हिन्दू पंचाग के अनुसार जीवित्पुत्रिका का व्रत आश्विन माह कृष्ण पक्ष की सप्तमी से नवमी तक मनाया जाता हैं और इस बार ये व्रत 21 सितंबर को पड़ रहा है। जीवित्पुत्रिका व्रत और इसकी पूजा विधि तीन दिन के लिए अलग-अलग होती है। मान्यता है कि इस व्रत को करने से संतान को लंबी उम्र मिलती है और उसका स्वास्थ्य हमेशा अच्छा रहता है।
इस व्रत को करने वाली माएं अपने संतान को आस्मिक संकटों से बचाती हैं। महाभारत काल से इस व्रत की परंपरा चली आ रही है। अभिमन्यु की पत्नी ने भी अपने कोख में पल रहे संतान के लिए ये व्रत रखा था। आइए जीवित्पुत्रिका व्रत के महत्व के साथ उसकी पूजा विधि और कथा को जानें।
जीवित्पुत्रिका व्रत की विधि जानें
नहाई खाई : जीवित्पुत्रिका व्रत का पहला दिन नहाई-खाई का होता है। इस दिन व्रत करने वाली महिलाएं केवल एक बार ही भोजन करती हैं। इसके बाद वह कुछ भी नहीं खाती। अगले दिन के निर्जला व्रत के पहले ये नहाई-खाई होता है।
खुर जितिया : यह जीवित्पुत्रिका व्रत का दूसरा दिन होता हैं और इस दिन महिलायें संतान की रक्षा के लिए निर्जला व्रत करती हैं। इस दिन व्रत करना और शाम के समय व्रत कथा सुनना और सुनाना बहुत जरूरी होता है। तभी ये व्रत सफल माना जाता है।
पारण : यह जीवित्पुत्रिका निर्जला व्रत का अंतिम दिन होता हैं इस व्रत का पारण करना होता है। पारण वाले दिन महिलाओं को अपने मुख में सर्वप्रथम झोर भात, नोनी का साग या मडुआ यानी मरुवा की रोटी खानी होती है। तभी व्रत पूर्ण होता है।
जीवित्पुत्रिका व्रत महत्व
पुराणों में लिखा है कि इस व्रत को सुनने मात्र से भी संतान की रक्षा होती है। एक बार एक चील और लोमड़ी जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा महिलाओं को कहते हुए सुने। चील ने तो बहुत तन्मयता के साथ कथा का वाचन किया लेकिन लोमड़ी का मन उस कथा में नहीं लगा। इसका फल यह हुआ कि एक बार संकट में चिल और लोमड़ी के बच्चे पड़े तो चिल के बच्चे आसानी से संकट मुक्त हो गए लेकिन लोमड़ी के बच्चे अपने जान गंवा बैठे। इसलिए जो महिलाएं व्रत नहीं कर पाती यदि वे केवल इस कथा को सुन भी लें तो उनके संतान पर भगवान का आर्शीवाद बना रहता है।
जीवित्पुत्रिका व्रत कथा
जीवित्पुत्रिका व्रत कथा महाभारत काल से संबंधित है। द्रोणाचार्य की मौत से अश्वस्थामा बहुत दुखी और आक्रोश में था। आक्रोश इतना बढ़ा की वह पांडवों की हत्यो के लिए उनके शिविर में जा पहुंचा और वहां सो रहे पांडवों के पांचों पुत्रों को ये सोच कर मार डाला कि ये पांडव ही हैं, लेकिन वे दौपदी की संतान थे। इस हत्या से उद्वेलित अर्जुन ने अश्वस्थामा को बंदी बना कर उसका दिव्य मणि छीन लिया। तब अश्वस्थामा ने अभिमन्यु के अजन्मी संतान के वध के लिए ब्रह्मास्त्र चला दिया।
क्योंकि ब्रह्मास्त्र को निष्फल करना नामुमकिन था इसलिए अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के पेट में ही उसकी संतान मर गई। महाभारत युद्ध में उत्तरा की संतान का जन्म लेना आवश्यक थी, जिस कारण भगवान श्री कृष्ण ने अपने चमत्कार से उस अजन्मी संतान को पुन:जीवित कर दिया। गर्भ में मरकर जीवित होने के कारण उत्तरा की संतान का नाम जीवित्पुत्रिका पड़ा और आगे जाकर यही राजा परीक्षित के नाम से प्रचलित हुआ। कहते हैं कि इस कथा को सुनने से संतान को अतुलनीय वरदान मिलता है।
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