- भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा कार मार्केट है। कोरिया और जापान की विदेशी कंपनियों ने बड़ी हिस्सेदारी बनाई है।
- हुंडई, होंडा, निशान, मर्सिडीज, फॉक्सवैगन, टोयोटा, BMW, MG मोटर्स जैसी प्रमुख विदेशी कार कंपनियां भारत में हैं।
- अमेरिकी कंपनियों ने डेट्रॉयट (Detroit) मॉडल से भारत में कारोबार करने की कोशिश की, जिसका उन्हें खामियाजा उठाना पड़ा।
नई दिल्ली: दुनिया का चौथा सबसे बड़ा कार मार्केट और दिग्गज अमेरिकी ऑटो कंपनियां, ये जोड़ (कॉम्बिनेशन) ऐसा है कि हर कोई सोचेगा कि यहां फेल होने का कोई चांस नहीं है। लेकिन इसके बावजूद भारत में लगातार अमेरिकी ऑटो कंपनियां फेल हो रही है। सबसे पहले जनरल मोटर्स ने साल 2017 में भारत से अपना कारोबार समेटा, उसके बाद 2019 में यूएम मोटरसाइकिल, फिर बाइक की दिग्गज की कंपनी हार्ले डेविडसन ने 2020 में अपना कारोबार बंद कर दिया। और अब फोर्ड ने 9 सितंबर 2021 को भारत से अपने कारोबार समेट का ऐलान कर दिया है।
फोर्ड ने क्या कहा
कंपनी इस फैसले के तहत भारत में अपने चेन्नई और साणंद के मैन्युफैक्चरिंग प्लांट बंद करेगी और देश में केवल आयातित वाहनों की बिक्री करेगी। इन प्लांट में कंपनी ने करीब 2.5 अरब डॉलर का निवेश किया है। इस फैसले के बाद इकोस्पोर्ट, फिगो और एस्पायर जैसे वाहनों की बिक्री कंपनी बंद कर देगी। आगे चलकर यह देश में केवल मस्टैंग जैसे आयातित वाहनों की ही बिक्री करेगी। इस फैसले के बाद फोर्ड इंडिया के प्रेसिडेंट और मैनेजिंग डायरेक्टर, अनुराग मेहरोत्रा ने कहा, "फोर्ड भारत में ग्राहकों को सर्विस और वारंटी सपोर्ट को जारी रखेगी। फिगो, एस्पायर, फ्रीस्टाइल, इकोस्पोर्ट और एंडेवर जैसे मौजूदा प्रोडक्ट की बिक्री मौजूदा डीलर इन्वेंट्री के बेचे जाने के बाद बंद हो जाएगी।"
फोर्ड इंडिया के पास सालाना 6,10,000 इंजन और 4,40,000 वाहनों की मैन्युफैक्चरिंग क्षमता है। कंपनी ने फिगो, एस्पायर और इकोस्पोर्ट जैसे अपने मॉडलों को दुनिया भर के 70 से अधिक बाजारों में निर्यात किया है। कंपनी के इस फैसले से 4000 कर्मचारियों पर असर होगा। हालांकि कंपनी के एमडी अनुराग मेहरोत्रा ने कहा है "हम अपने ग्राहकों और रीस्ट्रक्चरिंग से प्रभावित लोगों के लिए कर्मचारियों, यूनियनों, डीलरों और सप्लायर्स के साथ मिलकर काम कर रहे हैं।
अमेरिकी कंपनियां क्यों हो जाती हैं फेल
भारत में 1991 से शुरू हुए उदारीकरण के बाद फोर्ड उन कंपनियों में सबसे प्रमुख थी, जिसने भारत में एंट्री की थी। उस वक्त भारतीय कार बाजार में एंबेस्डर, फिएट और मारूति का एकाधिकार था। ऐसे में उसे उम्मीद थी कि भारत का उभरता बाजार कंपनी को बड़ा कारोबार दिलाएगा। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया और वह भारतीय कंपनी मारूति और कोरियाई कंपनी हुंडई से पिछड़ती चली गई है। कंपनी की भारतीय बाजार में इस समय 2 फीसदी से कम हिस्सेदारी है। और 2020-21 में वह केवल 41,875 कारें बेच पाई । वही अगर केवल जुलाई 2021 आंकड़े देखे तो मारूति ने इस महीने 1,33,732 कारें और हुंडई ने इस दौरान 48072 कारें बेची हैं। जबकि फोर्ड ने 3139 कारें बेची हैं।
अमेरिकी कंपनियों के फेल होने पर टाइम्स नाउ नवभारत डिजिटल ने ऑटो इंडस्ट्री के वेटरन और कभी भारत में अमेरिकी कंपनी जनरल मोटर्स के निदेशक मंडल में शामिल और उसके वाइस प्रेसिडेंट रह चुके पी.बालेंद्रन से बात की है।
डेट्रॉयट से नहीं चलाई जा सकती कंपनी
बालेंद्रन के अनुसार अमेरिकी कंपनियों के साथ समस्या यह है कि वह भारतीय बाजार को अमेरिका के डेट्रॉयट के नजर से देखती हैं। जबकि उन्हें समझना चाहिए कि तीसरी दुनिया का कार बाजार अमेरिका जैसे विकसित बाजार जैसा नहीं है। इस नजरिए से सबसे बड़ी समस्या प्रोडक्ट लांचिंग और उसकी मार्केटिंग में आती है। जिसकी वजह से भारतीय ग्राहकों की पसंद नहीं बन पाते हैं। जबकि दूसरी विदेशी कंपनियों ने भारतीय बाजार के अनुसार प्रोडक्ट उतारे हैं। अमेरिकी कंपनियों ने ऐसा नहीं किया। आप डेट्रॉयट में बैठ कर भारतीय मैंनजमेंट को अमेरिका और यूरोप की कार भारत में बेचने के लिए मजबूर नहीं कर सकते हैं।
छोटी कारों पर शुरू में फोकस नहीं
भारतीय बाजार शुरूआत से ही छोटी कारों का रहा है। लेकिन अमेरिकी कंपनियों ने उसे अमेरिकी बाजार के नजरिए से देखा और छोटी कारों को लेकर शुरूआत में फोकस नहीं किया। जिसकी वजह से बिक्री में पिछड़ गई और दूसरी कंपनियों ने बाजार पर कब्जा कर लिया।
लोकलाइजेशन पर जोर नहीं
ज्यादातर अमेरिकी कंपनियों ने लोकलाइजेशन पर जोर नहीं दिया। जिसकी वजह से उनके प्रोडक्ट हमेशा महंगे रहे। करीब 89-90 फीसदी पार्ट्स आयात किए जाते रहे। ऐसे में कीमत को लेकर बेहद संवेदनशील भारतीय कार बाजार में वह दूसरी कंपनियों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाई। ज्यादातर पार्टस आयात होने की वजह से इन कारों की ऑफ्टर सेल्स सर्विस भी महंगी रही है। इस वजह से ग्राहकों की पसंद नहीं बन पाईं।
बार-बार वरिष्ठ अधिकारी बदले
दूसरी कंपनियों से तुलना की जाय तो अमेरिकी कंपनियों ने अपने वरिष्ठ अधिकारी बहुत तेजी से बदले। मारूति ने पिछले 21 साल में 2-3 सीईओ बदले हैं। जबकि जनरल मोर्ट्स और फोर्ड ने 10-12 साल के अपने ऑपरेशन में ही 8-9 मैनेजिंग डायरेक्टर बदल दिए। हालत यह रही कि किसी एक एमडी को भारतीय बाजार को समझने का समय ही नहीं मिला। एक-दो साल में जब तक उसे भारतीय बाजार की समझ होती, उसको बदल दिया जाता था। ऐसे में भारतीय बाजार को लेकर खास रणनीति ही नहीं बन पाई।
बुनियादी (स्ट्रक्चरल) लागत बहुत ज्यादा
अमेरिकी कंपनियों की बुनियादी लागत बहुत ज्यादा होती है। मसलन वरिष्ठ अधिकारियों के वेतन और दूसरे खर्चें, भारत की तुलना में बहुत ज्यादा होते हैं। इसका असर कंपनी की लागत पर पड़ता है। जो कि बहुत बड़े खर्चे हो जाते हैं। इसके अलावा वाहनों के निर्माण में अमेरिकी कंपनियाां बड़े पैमाने पर इंजीनियरिंग का इस्तेमाल करती हैं। जिसकी वजह से भी लागत बढ़ जाती और दूसरी कंपनियों के मुकाबले वह पिछड़ जाती हैं।
माइलेज पर फोकस नहीं
भारत में एक मर्सडीज खरीदने वाला ग्राहक भी माइलेज को लेकर संवेदनशील होता है। ऐसे में अगर कोई कंपनी भारतीय बाजार में अपने प्रोडक्ट लांच करते वक्त माइलेज की अनदेखी करेगी, तो निश्चित तौर पर उसे नुकसान उठाना पड़ेगा। जिसका भी खामियाजा इन कंपनियों को उठना पड़ा है।