- भाजपा ने कल्याणकारी योजनाओं और कानून व्यवस्था के दम पर वोटरों को लुभाया है।
- दल-बदलू अखिलेश का नहीं लगाए पाए बेड़ा पार। स्वामी प्रसाद मौर्य से लेकर ओम प्रकाश राजभर नहीं आए काम
- बसपा, कांग्रेस अपने निचले स्तर पर पहुंच गई है, उनके भविष्य की राजनीति पर उठे सवाल ?
UP Election Result 2022: बागपत के रहने वाले राज कुमार वैसे तो गाजियाबाद में कैब ड्राइवर है, लेकिन जब उनसे मैंने रिजल्ट आने से कुछ समय पहले यह सवाल पूछा कि 'यूपी में का बा ' तो उन्होंने तपाक से जवाब दिया, 'योगी और के बा' । ऐसा क्यों है, जबकि उनके इलाके में तो किसान आंदोलन पूरे चरम पर था। तो उनका सीधा सा जवाब था, दो साल से फ्री में खाना मोदी और योगी दिए हैं। सड़के बनवाई है, रात में 10 घंटे ट्यूबल पर खेतों के लिए पानी आता है और घर की महिलाएं और बच्चे रात में भी बेधड़क घूम-फिर सकते हैं।
राज कुमार के इन सीधे जवाबों से उत्तर प्रदेश चुनाव परिणाम का सार और भाजपा की बंपर जीत को समझा जा सकता है। असल में जिस तरह भाजपा ने विपक्ष के मंसूबों पर पानी फेरा है, उससे एक बात साफ हो गई है कि उसे भाजपा को हराने के लिए नए मॉडल की तलाश करनी होगी। परंपरागत राजनीति से आप मोदी-योगी (Modi-Yogi) यानी डबल इंजन (भाजपा मोदी-योगी की जोड़ी को डबल इंजन कहती है) (Double Engine) को नहीं हरा सकते हैं। और इसी बदली राजनीति का परिणाम है कि 1985 के बाद योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) ऐसे पहले मुख्यमंत्री बनने वाले हैं, जो 5 साल बाद जीतकर दूसरी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनेंगे।
अब जातिगत समीकरण से यूपी नहीं जीता जा सकता ?
2022 के उत्तर प्रदेश नतीजे साफ है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति अब परंपरागत तरीके वाली राजनीति नहीं रह गई है। जिसमें केवल जातिगत समीकरणों से वोट हासिल कर लिए जाते थे। 2017 और 2022 के विधान सभा और 2019 के लोकसभा चुनाव के परिणामों से साफ है कि अब यूपी में केवल जातिगत समीकरणों को साध जीत हासिल नहीं की जा सकती है।
मसलन 2017 के विधान सभा चुनावों में सपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया, इसके बाद 2019 में सपा और बसपा ने गठबंधन किया और 2022 में सपा ने आरएलडी सहित अन्य छोटे दलों के साथ गठबंधन किया। लेकिन हर बार ये समीकरण फेल हुए। साफ है कि यूपी का वोटर बदल गया है उससे केवल जातिगत अस्मिता के नाम पर वोट नहीं हासिल किया जा सकता है।
इसके अलावा एक अहम बात यह है कि भाजपा ने दूसरे दलों की तुलना में कई महीने पहले से चुनाव की तैयारी शुरू कर दी थी। वह केवल बड़ी रैलियों की भरोसे नहीं रही, बल्कि डोर-टू-डोर कैंपेन कर अपने वोटर को जोड़ने में कामयाबी हासिल की।
अखिलेश की 'नकल' नही आई काम
इन चुनाव में अखिलेश ने जीत के लिए उसी फॉर्मूले की नकल कर डाली, जिसे भाजपा ने 2017 में अपनाकर 300 से ज्यादा सीटें हासिल की थी। अखिलेश ने इसके लिए सबसे पहले, ओम प्रकाश राजभर को अपने पाले मे लिया। उसके बाद बहुजन समाज पार्टी के असंतुष्ट और जनाधार वाले नेताओं को शामिल किया। जिसमें राम अचलभर, लाल जी वर्मा जैसे कांशीराम के दौर के नेता शामिल थे। इसके बाद उन्होंने चुनावों से ठीक पहले भाजपा में सेंध लगाई और ओबीसी नेताओं को तोड़कर अपने पाले में लिया। जिसमें स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान, धर्म सिंह सैनी, अवतार सिंह भड़ाना जैसे नेताओं को भाजपा से तोड़ सपा में शामिल किया।
इसके अलावा अखिलेश यादव ने एक कोशिश यह भी कि पूर्वांचल में ठाकुर बनाम ब्राह्मण को हवा दी जाय। जिससे योगी के खिलाफ ब्राह्मण मतदाता खड़े हो जाय। इसके लिए उन्होंने पूर्वांचल के कभी बाहुबली रहे हरिशंकर तिवारी के परिवार को सपा शामिल कराया। साथ ही कृष्णा पटेल के अपना दल, केशव प्रसाद मौर्य के महान दल सहित जाति आधारित कई छोटे-छोटे दलों को अपने पाले में कर लिया।
लेकिन इतनी कवायद के बावजूद परिणाम अखिलेश के आशाओं के अनुरूप नहीं आए। और कई दल-बदलू खुद भी चुनाव हार गए। स्वामी प्रसाद मौर्य जो बड़े ओबीसी चेहरे के रूप में सपा में शामिल हुए थे, और उम्मीद थी कि वह ओबीसी वोटरों को सपा के पाले में लाएंगे, वह खुद चुनाव हार गए। इसी तरह अवतार सिंह भड़ाना भी चुनाव हार गए। और खबर लिखे जाने वक्त तक धर्म सिंह सैनी भी हार रहे थे। इसी तरह हरिशंकर तिवारी के बेटे विनय शंकर तिवारी भी चुनाव हार गए। और जो ओम प्रकाश राजभर सपा के साथ मिलकर बड़ी जीत के दावे कर रहे थे, वह शिवपुर से अपने बेटे को भी चुनाव नहीं जिता पाए।
पश्चिमी यूपी में भाजपा का नहीं हुआ सफाया
अखिलेश यादव को सबसे ज्यादा उम्मीद पश्चिमी यूपी से थी। उन्हें उम्मीद थी कि किसान आंदोलन के बाद जाट और मुस्लिम वोटरों की एकजुटता से उन्हें बड़ा फायदा मिलेगा। लेकिन अखिलेश यादव से ज्यादा जयंत चौधरी को फायदा होता दिख रहा है। जयंत चौधरी की आरएलडी को 2022 में 8 सीटें मिलती दिख रही है। जबकि 2017 में केवल एक सीट पर जीत हासिल हुई थी। हालांकि वैसा फायदा अखिलेश को होता नहीं दिख रहा है। और किसान आंदोलन और जातिगत समीकरण के बावजूद भाजपा ने पश्चिमी यूपी की 100 सीटों में से 70 से ज्यादा सीटें हासिल कर ली है।
भाजपा ने बदल दी राजनीति
असल में योगी आदित्यनाथ की बड़ी जीत की सबसे बड़ी वजह, वह योजनाएं रही हैं, जिसे जातिगत चश्में में दूसरे दल नहीं देख पा रहे थे। मसलन 15 करोड़ लोगों को फ्री राशन से लेकर पिछले 5 साल में पीएस आवास योजना के तहत 40 लाख लोगों को घर मिलना शामिल है। इसके अलावा पीएम किसान सम्मान निधि के तहत साल में 6000 रुपये और ई-श्रम योजना के तहत मिलने वाली मासिक सहायता ने कोविड दौर में गरीब तबके को बड़ी राहत पहुंचाई है। जिसका फायदा चुनावों में बड़े पैमाने पर मिलता दिख रहा है। इसके अलावा सड़कों के विकास ने भी भाजपा की जीत में बड़ा योगदान दिया है। कैराना के पास नूह कस्बे में रहने वाले विवेक का कहना है 'पिछले 5 साल में दिल्ली-सहारनपुर से लेकर, कैराना के आस-पास इतनी सड़कें बनी हैं कि जो कि पहले कभी नहीं हुआ।' और इसी के दम पर भाजपा ने 41 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल कर लिए। जो कि 2017 से भी करीब 2 फीसदी ज्यादा है।
महंगाई-बेरोजगारी पर पड़ा भारी, कानून व्यवस्था-बुलडोजर ?
समावजादी पार्टी से लेकर कांग्रेस सभी को भरोसा था कि 90-100 रुपये प्रति लीटर के करीब बिक रहे पेट्रोल-डीजल और कोविड-19 के बाद बढ़ी बेरोजगारी ऐसा मुद्दा रहेगा, जिससे वह आसानी से योगी सरकार को हरा देंगे। लेकिन योगी सरकार ने कानून व्यवस्था में सुधार और माफियाओं पर बुलडोजर चलाने का ऐसा मुद्दा बनाया जो पूरी तरह महंगाई और बेरोजगारी पर भारी पड़ते दिखे हैं। योगी आदित्यनाथ ने करीब-करीब सभी रैलियों में बुलडोजर की बात की। दरअसल, योगी ने बुलडोजर को माफिया के खिलाफ कार्रवाई का प्रतीक बना दिया। लोगों ने इसे कानून-व्यवस्था में सुधार के रूप में देखा। जिसका असर रिजल्ट में भी दिखाई दिया ।
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बसपा-कांग्रेस अपने निचले स्तर पर
इन चुनावों शुरू से मायावती की सक्रियता को लेकर सवाल उठ रहे थे। ऐसा माना जा रहा था कि बसपा रेस में नहीं है। लेकिन नतीजे कहीं ज्यादा चौंकाने वाले रहे । इस बार उसे केवल एक सीट मिलती दिख रही है। और उसके वोट में करीब 9 फीसदी कमी आई है। बसपा को इस बार 12.76 फीसदी वोट मिला है। बसपा जैसा ही हाल कांग्रेस का भी रहा है। उसे केवल 2 सीटें मिल रही है। कांग्रेस का प्रदर्शन इसलिए भी निराशाजनक है क्योंकि खुद प्रियंका गांधी ने यूपी में पार्टी की कमान संभाली थी। लेकिन फायदा होने की जगह, पार्टी का वोट पिछली बार से 4 फीसदी तक घट गया है। इस बार कांग्रेस करीब 2.72 फीसदी वोट मिला है।
ओवैसी का सूपड़ा साफ
बिहार में 5 सीट जीतने के बाद AIMIM प्रमुख असददुद्दीन ओवैसी को यूपी में बड़ा कमाल करने की उम्मीद थी। लेकिन यूपी की जनता ने उनको सिरे से नकार दिया है। खबर लिखे जाने तक उनकी पार्टी को केवल 0.47 प्रतिशत वोट मिले हैं। अगर इन्हें वोटों में तब्दील किया जाए तो यह संख्या 3,77,475 होती है। ओवैसी की पार्टी का प्रदर्शन उत्तर प्रदेश में इतना खराब रहा है कि उसके खाते में नोटा से भी कम वोट आए। कुल वोट में NOTA का प्रतिशत 0.69 रहा। नोटा को ओवैसी की पार्टी से 1,99,027 लाख अधिक वोट मिले।