Shikara Review in Hindi: ऐ वादी शहजादी, कहो कैसी हो,
क्या है दिल में सबकुछ तुम्हें बताऊंगा।
कुछ बरसों से टूट गया हूं, खंडित हूं,
वादी तेरा बेटा हूं, मैं पंडित हूं।
साल 1989-90 पूरी कश्मीर घाटी में नारा लगता है-'जागो जागो, सुबह हुई, रूस ने बाजी हारी है, हिंद पर लर्जन तारी है, अब कश्मीर की बारी है। हम क्या चाहते, आजादी।' 'रलिव, गलिव या चलिव।' (हमारे साथ मिल जाओ, मरो या भाग जाओ।) इसके बाद शुरू होता है कश्मीरी पंडितों का घाटी का सबसे खूनी नरसंहार।
घाटी में तैयार होती है कश्मीरी पंडितों की हिट लिस्ट। नतीजा 19 जनवरी 1990 को लगभग चार लाख कश्मीरी पंडित अपनी घाटी, अपना घर छोड़कर पलायन करने को मजबूर हो जाते हैं। अब 30 साल बाद आजाद भारत के इस काले अध्याय की कहानी विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म शिकारा के जरिए पहली बार बड़े पर्दे पर आ रही है।
कहानी
डॉक्टर शिव कुमार धर (आदिल खान) अपनी पत्नी शांति सप्रू धर (सादिया) के साथ जम्मू स्थित एक रिफ्यूजी कैंप में रह रहे हैं। शिव कुमार धर पिछले 28 साल से अमेरिका के कई राष्ट्रपतियों को कश्मीरी पंडितों का दर्द बताने के लिए खत लिख रहे हैं।
शिव को एक दिन खत मिलता है, जिसमें उसे आगरा में प्रेसिडेंट से मिलने का बुलावा आता है। इसके बाद सामने आती है शांति और शिव की लव स्टोरी। शिव कश्मीर के लेखक और मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर हैं।
शांति कश्मीर भी घाटी में एक डॉक्टर हैं। दोनों की मुलाकात एक फिल्म की शूटिंग के दौरान होती है। कुछ वक्त बाद दोनों की शादी हो जाती है, और अपने नए घर शिकारा में शिफ्ट होते हैं।
घाटी में हिंदू- मुस्लिम एक साथ अमन से रह रहे हैं, लेकिन साल 1989 आते-आते माहौल पूरी तरह से बदल जाता है। शिव कुमार धर के दोस्त और रणजी प्लेयर लतीफ लोन के पिता, जो चुनाव लड़ रहे हैं उनकी हत्या कर दी जाती है। इसके बाद शुरू होता है पाकिस्तान प्रायोजित आतंक का खूनी खेल। शहर में कश्मीरी पंडितों की हिट लिस्ट तैयार की जाती है। कश्मीर दूरदर्शन के एंकर लासा कौल की हत्या कर दी जाती है।
घाटी के कत्लेआम से शिव कुमार धर और शांति भी नहीं बच पाते हैं। पहले भाई की मौत फिर घर पर हमला। आखिरकार आजाद भारत का सबसे बड़ा पलायन होता है। लाखों कश्मीरी पंडित रिफ्यूजी कैंपों में रहने के लिए मजबूर हो जाते हैं। अब क्या शिव और शांति वापस घाटी लौट पाएंगे। क्या पूरी होगी शांति की इच्छा। इसके लिए आपको शिकारा देखनी होगी।
रिव्यू
शिकारा जैसा फिल्म के प्रमोशन और ट्रेलर में भी कहा गया है कि ये कश्मीर को पंडितों की तरफ से एक लव लेटर है। फिल्म 90 के दशक में कश्मीरी पंडितों की त्रासदी तो दिखाती ही है। इसके अलावा आज के वक्त में जम्मू स्थित रिफ्यूजी कैंपों की हालत भी दिखाती है।
फिल्म की ज्यादातर शूटिंग असल शरणार्थी शिवरों में हुई है, जो इस त्रासदी के जख्म को हरा करती है। इसके अलावा तत्कालीन पाकिस्तान बेनजीर भुट्टो की जहरीली स्पीच की असली फुटेज पाकिस्तान की पोल भी खोलता है।
हालांकि, इस त्रासदी के बीच शिव और शांति की लव स्टोरी आपको टाइटैनिक फिल्म के जैक और रोस की लव स्टोरी की यादें ताजा कर देगी। आदिल और शांति ने अपनी एक्टिंग के जरिए छाप छोड़ने में कामयाब रहे हैं।
फिल्म के कई सीन आंखों में आंसू ला सकते हैं। विधु विनोद चोपड़ा का डायरेक्शन और राहुल पंडिता का लेखन आपको क्लाइमैक्स तक बांधे रखेगा। फिल्म के डायलॉग काफी पोएटिक हैं। खासकर इरशाद कामिल की कविता ऐ वादी शहजादी, घर से निकाल दिए जाने के गम को बेहतरीन ढंग से पेश किया है। ए.आर.रहमान का संगीत और फिल्म के गाने खासकर कश्मीरी फोक सॉन्ग्स कई वक्त तक लोगों के जुबान पर रहेंगे।
कमजोर कड़ी
फिल्म कई जगह धीमी हो जाती है। इसके अलावा फिल्म की एडिटिंग कुछ जगह पर निराश करती है। फिल्म में कई जगह शिव और शांति की लव स्टोरी असली कहानी पर हावी हो जाती है।
क्यों देखें फिल्म
कश्मीरी पंडितों की त्रासदी आजतक केवल राजनीतिक बहस का ही हिस्सा रही है। कश्मीर पंडितों की मजबूरियों और दर्द को यदि आप खुद महसूस करना चाहते हैं तो ये फिल्म जरूर देखें।