- 20 साल से अधिक समय हो गया बीजेपी और अकाली दल को सहयोगी दल बने
- आगामी पंजाब विधानसभा चुनाव से पहले दोनों में दरार
- किसान बिल बन गए दोनों की दोस्ती में पड़ी दरार का कारण
20 साल से भी पुराना गठबंधन एक झटके में टूटता नजर आ रहा है। क्या पंजाब चुनाव में दोनों की राहें होंगी जुदा? किसान बिल तो एक बहाना है, पंजाब में अकेले दम पर सहयोगी दल को आईना दिखाना है, कहीं बीजेपी और अकाली दल के अंतर्मन में ऐसा कुछ तो नहीं चल रहा है। कहते हैं कि दो दोस्त एक दूसरे की मजबूती और कमजोरी दोनों अच्छे से समझते और जानते हैं। दोस्ती रुपी पतंग को कितनी ढील देनी है और कब मौका आते ही उसे काट देनी है, ये राजनीति में भलीभांति नेतागण जानते हैं। किसान के बिलों को लेकर जिस तरह से अकाली दल की हरसिमरत कौर ने बीजेपी से कन्नी काटते हुए मंत्रिपद से इस्तीफा दे दिय, उससे तो साफ जाहिर होता है कि अकाली दल की नजर पंजाब में खोते और टूटते जनाधार पर है।
किसान बिल है बहाना, 2017 का चुनाव है रिश्ते में पड़ी दरार का कारण ?
भले ही केंद्र में अब तक का साथ बड़ा सुहाना था, लेकिन अकाली दल और बीजेपी दोनों को साल 2017 का चुनाव भूला नहीं होगा। कांग्रेस ने इस गठबंधन को ऐसे चित्त किया था कि वो चोट दोनों के रिश्ते पर आज दरार बनकर उभरा। दोनों को वहां की जनता ने आईना दिखा दिया था। अकाली दल को हार की वो टीस आज भी याद होगी। दोनों साथ रहकर भी एक-दूसरे के दर्द पर मरहम नहीं लगा पाए।
अब किस लहर में झूम रही है बीजेपी ?
अकाली दल को अपना वोट बैंक याद आ गया इसलिए वो केंद्र में बैठी अपनी सहयोगी पार्टी का बिना इस बिल को समझे ही साथ लगभग छोड़ दिया। अभी इस्तीफा दिया है, लेकिन गठबंधन से अलग नहीं हुए हैं। आश्चर्य तो बीजेपी पर भी हो रहा है कि आखिर वो अब किस लहर पर इतना नाच रही है। ऐसी कौन सी घुट्टी उसे मिल गई है कि वो पंजाब में अपना जनाधार अकेले ही खोजने निकल पड़ी है। कहीं बीजेपी को ऐसा तो नहीं लग रहा है कि जब पंजाब की जनता वहां की क्षेत्रीय पार्टी का ही साथ नहीं दे रही है, तो उसके साथ वाले गठबंधन का क्या साथ देगी।
आखिर साइलेंट मोड पर क्यूँ है बीजेपी ?
हरसिमरत कौर बादल ने इस्तीफा दे दिया, राष्ट्रपति ने उनके इस्तीफे को स्वीकार भी कर लिया, लेकिन बीजेपी की तरफ से मनाने का कोई प्रयास नहीं दिखा। इस वक्त बीजेपी के साइलेंस पर कई सवाल उठ रहे हैं। कहीं बीजेपी के मन में ये तो नहीं चल रहा है कि चलो जो हुआ अच्छा हुआ। शांत रहकर अपने खेल को अंजाम देने की फिराक में तो नहीं है बीजेपी। बीजेपी हमेशा ही अपने सहयोगी दलों को साथ लेकर चलती है और अगर कोई बिदग भी जाए तो उसे मना लेती है। इस बार की ये शांति और चुप्पी कुछ और ही बयां कर रही है।
कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना
ये बात दोनों की पार्टियों पर फिट बैठ रही है। दोनों की निगाहें कहीं और है तो निशाना कुछ और ही। दुनियाभर की राजनीतिक पार्टियां ये सोचने में लगी हैं कि आखिर ये दो दल अलग होने की कगार पर कैसे हैं, लेकिन यहां दोनों ही अपने-अपने खेल में लगे हैं। बीजेपी भी किसान बिल को लोकसभा में पास करके निशाना बिल्कुल सही जगह लगाया। दोनों ही राजनीतिक पार्टियां राजनीति के गलियारे में खलबली मचाकर शांत हो गई हैं और पंजाब में आने वाले विधानसभा चुनाव पर अपनी नजरें गड़ाए हुए हैं। मंत्रिपद पर रहकर पंजाब को खोना अकाली दल कभी नहीं चाहेगा और बीजेपी भी एक मंत्री के लिए पूरे पंजाब के जनाधार को खोना नहीं चाहेगा।