- मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1980 में तैयार की थी।
- 7 अगस्त 1990 को मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने का ऐलान हुआ।
- जातिगत जनगणना की कवायद कर्नाटक में भी की गई थी, लेकिन उसके आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं किया गया।
नई दिल्ली: नीतिश राज में बिहार में जाति के आधार पर जनगणना करने के प्रस्ताव पर मुहर लग चुकी है। जाति के आधार पर जनगणना के प्रस्ताव को लगभग निर्विरोध पास किया गया। समर्थन में हर वो ‘सियासी सूरमा’ मौजूद था, जिसकी राजनीति की नींव, जाति की ईंट पर टिकी है।संभवत: ये पहली और शायद इकलौती ‘योजना’ होगी जिस पर सत्ता और विपक्ष ‘हम साथ-साथ है’ गाना गुनगुना रहे हैं। देश की राजनीति में पिछले 4 दशक से मंडल और कमंडल के इर्द गिर्द घूम रही है। इतने ही काल खंड में दुनिया के कई देश, विकासशील से विकसित हो गए। लेकिन भारत में शिक्षा और स्वास्थ्य की राजनीति से इतर, राजनीतिक पार्टीयां जाति और धर्म के वोटबैंक में ही डूबे हैं। जातिगत गणना की सामाजिक प्रभाव जानने से पहले इसका राजनीतिक इतिहास जानना भी जरुरी है।
दिसंबर 1978 में मंडल आयोग का गठन हुआ
जाति की बिसात पर राजनीतिक प्यादे रखने की नींव रखी गई पहली गैर-कांग्रेसी सरकार यानी मोरारजी देसाई की सरकार में। तारीख थी 20 दिसंबर, 1978, बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अगुवाई में आयोग बनाया गया और नाम रखा गया मंडल आयोग। मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1980 में पूरी की, लेकिन तब तक मोरारजी देसाई सत्ता से बाहर हो चुके थे और आपातकाल की कालिख हटा कर इंदिरा गांधी सत्ता में वापसी कर चुकी थीं। इंदिरा गांधी की हत्या हुई, राजीव गांधी ने कमान संभाली लेकिन राजीव गांधी का दामन बोफोर्स घोटाले के दागों से रंग चुका था। देश में पहली बार कोई सरकार, कार्यकाल पूरा होने से पहले ही लड़खड़ा रही थी। प्रधानमंत्री खुद कटघरे में थे क्यों कि आरोप लगाया था देश के तत्कालीन रक्षामंत्री ने। नाम विश्वनाथ प्रताप सिंह। चुनाव की बयार देख रहे देश को वीपीसिंह से अगाध उम्मीदें थी। देश नारा लगा रहा था कि राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है। वीपी सिंह का जादू रंग लाया, राजा मांडा यानी वीपी सिंह लेफ्ट और बीजेपी के समर्थन से देश के प्रधानमंत्री बने।
1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हुईं
फिर आई वो एतिहासिक तारीख जिसने देश की राजनीति की फिज़ा बदल दी। 7 अगस्त 1990 को मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने का ऐलान सदन के अंदर हो चुका था। पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए आरक्षण सिफारिशों के मुताबिक तय कर दिया गया।लेकिन सवाल ये था कि ये फैसले पिछड़ी जातियो के सामाजिक उत्तथान के लिए थे या फिर राजनीतिक तिकड़मों के लिए।जगह-जगह आंदोलन हुए जो कि सत्ता बनाने और बिगाड़ने का मजबूत हथियार बना लिए गए। देश की हिंदी पट्टी, आंखों पर पट्टी बांध कर जाति की क्यारियों में बंट चुकी थी। सड़कों पर खून था लेकिन दिल्ली की सत्ता उसी को ब्रह्मास्त्र बना रही थी।
दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र जातिगत वोट बैंक में ऐसा फंसा कि सत्ता का तंत्र सिर्फ और सिर्फ जाति के यंत्र को साधने में लगा रहा। सत्ता दिलाने वाला बोफोर्स घोटाले के पर्चे वीपी सिंह की फाइलों में दबे रहे गए क्योंकि राजनीति और सत्ता की धूल जम चुकी थी। पिछले चार दशकों में जाति की राजनीति में आरक्षित जातियों-जनजातियों को क्या दिया ये शायद आंकड़े बता देगें लेकिन इसी जातिगत राजनीति ने राजनेताओं के लिए अलीबाबा के कितने खजाने खोले ये निश्चित तौर पर आंकडों में दर्ज करना मुमकिन नहीं है। यहां जानना जरुरी ये भी है कि मंडल आयोग की 40 सिफारिशों में से सिर्फ दो पर कुछ काम हुआ है जिसमें केंद्र में ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण और दूसरा एडमिशन में ओबीसी का 27 फीसगी आरक्षण। बाकी सिफारिशों पर तो काम तक शुरू नहीं हुआ है। यकीनन मंडल कमीशन की सिफारिशों पर सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए काम करने का नतीजा ये हुआ है कि आज तक भी देश में जाति के नाम पर विकास का ढकोसला परोसना हो या शोषणकारी सामाजिक ढांचा। बदलाव नहीं हुआ है।
कर्नाटक भी कर चुका है जातिगत जनगणना
बहरहाल, अंत्योदय के सपने के साथ जिस तरह बिहार में जाति जनगणना पर मुहर लगी है वो बाकी राज्यों में भी ऐसी मांगो को मजबूत करेगी लेकिन दो उदाहगण ऐसे भी है जो मंशा पर फिर सवाल खड़े कर देते है। पहला ये कि UPA सरकार में ऐसी ही गणना की गई थी। 2016 में NDA सरकार ने गणना के आंकड़े तो जारी किए लेकिन जातिगत आधार के आंकडे साझा नही किए गए, दूसरा कर्नाटक की सिद्धारमैया सरकार ने भी करोड़ों रुपये खर्च करके जातिगत जनगणना कराई लेकिन लिंगायत समुदाय, जो कि प्रदेश में सत्ता बनाने या बिगाड़ने की कुव्वत रखता है, नाराज ना हो जाए (क्यों कि संख्या में कम है और समुदाय को ये संख्या बाहर आने पर राजनीतिक पकड़ कमजोर होने का डर था) तो आंकड़े फिर फाइलों में दबा दिए गए।
हालांकि इस व्यवस्था का एक पहलू ये भी है कि पहली बार मुस्लिम जातियों का जातिय वर्गीकरण भी औपचारिक रुप से कागजों पर होगा। आजादी के बाद बाबा साहेब आंबेडकर से लेकर कांशीराम ने खुल कर अपना पक्ष रखा है। कांशीराम ने तो ये भी कहा है कि मुसलमानों में प्रतिनिधित्व के नाम पर उच्च वर्ग के मुसलमान ही है और OBC मुलसमान वंचित है। इसी तर्ज पर बीजेपी ने भी अपनी मांग रख दी थी कि बिहार में होने जा रही इस गणना में मुसलमानों की भी जातियों के आधार पर गणना की जानी चाहिए। जिसमें अशराफ से लेकर पसमांदा शामिल हैं।