नई दिल्ली: केंद्र सरकार ने असम के खतरनाक उग्रवादी समूहों में से एक, नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) के साथ सोमवार को एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किये। लंबे समय से बोडो राज्य की मांग करते हुए आंदोलन चलाने वाले ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन (एबीएसयू) ने भी इस समझौते पर गृह मंत्री अमित शाह की मौजूदगी में हस्ताक्षर किये हैं।
इस त्रिपक्षीय समझौते पर असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल, एनडीएफबी के चार गुटों के नेतृत्व, एबीएसयू, गृह मंत्रालय के संयुक्त सचिव सत्येंद्र गर्ग और असम के मुख्य सचिव कुमार संजय कृष्णा ने हस्ताक्षर किये। समझौते के बाद केंद्रीय गृह सचिव अजय भल्ला ने कहा कि यह एक ऐतिहासिक समझौता है। उन्होंने कहा कि इससे बोडो मुद्दे का व्यापक हल मिल सकेगा
तय होगा असम और बोडो जनजाति का सुनहरा भविष्य
गृह मंत्री अमित शाह ने कहा, आजद केंद्र सरकार, असम सरकार और बोडो के प्रतिनिधियों के बीच अहम समझौते पर हस्ताक्षर हुए हैं। ये समझौता असम के साथ-साथ बोडो जनजाति के लोगों का सुनहरा भविष्य सुनिश्चित करेगा। उन्होंने आगे बताया, बोडो के 1,550 सदस्य 130 हथियारों के साथ 30 जनवरी को सामूहिक तौर पर आत्म समर्पण करेंगे। देश के गृहमंत्री के रूप में मैं सभी प्रतिनिधियों के सामने ये सुनिश्चित करना चाहता हूं कि सारे वादे समय बद्ध तरीके से पूरे किए जाएंगे।
जानिए क्या है बोडो आंदोलन
बोडो ब्रह्मपुत्र घाटी के उत्तरी हिस्से में बसी असम की सबसे बड़ी जनजाति है। इस जनजाति के लोगों ने ब्रह्मपुत्र घाटी में धान की खेती आरंभ की। राज्य में इनकी जमीन पर दूसरे समुदायों को अनाधिकृत प्रवेश और भूमि पर बढ़ता दबाव ही इनके असंतोष की वजह रहा। 1960 के दशक से ही बोडो लोग पृथक बोडोलैंड राज्य का मांग करते आए हैं। 1980 के दशक के बाद बोडो आंदोलन हिंसक होने के साथ-साथ तीन भाग में बंट गया। पहले धड़े का नेतृत्व नेशनल डेमोक्रैटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) ने किया, जो अपने लिए अलग राज्य चाहता था। दूसरा समूह बीटीएफ यानी बोडोलैंड टाइगर्स फोर्स है जो ज्यादा स्वायत्तता की मांग करने के साथ-साथ गैर-बोडो समूहों को निशाना बना रहा था। वहीं तीसरा भाग बोडो स्टूडेंट्स यूनियन है, जो बीच का रास्ता तलाशकर राजनीतिक समाधान की मांग करता रहा है। इसमें से दो समूहों ने सोमवार को समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं।
2012 में जातीय संघर्ष में मारे गए थे सैकड़ों
साल 1993 से 2020 के बीच बोडो जनजाति के इलाके से पांच लाख से भी ज्यादा लोग विस्थापित हुए। सैकड़ों लोगों की जातीय संघर्ष में मौत हुई। जिनमें ज्यादातर मुस्लिम थे। हालांकि इस संघर्ष से बोडो और असम के गैर-मुस्लिम भी प्रभावित हुए। ऐसे में साल 2012 में हुए दंगे बड़ी त्रासदी बनकर उभरे। यहां से सबसे ज्यादा पलायन इस दौरान हुआ।