- जाकिया सोमन के अनुसार दुनिया में इस्लामोफोबिया की वजह से भारत में भी अरबीकरण बढ़ा है।
- हिजाब एक पितृसत्तात्मक सोच है, जिसे लड़कियों को शिक्षित कर बदला जा सकता है।
- धर्म की राजनीति को बंद करना चाहिए, इससे समाज और देश को बहुत नुकसान पहुंच रहा है।
इस समय कर्नाटक में स्कूल यूनिफॉर्म पर लड़कियों को हिजाब पहनने की छूट मिलनी चाहिए या नहीं, इसको लेकर पूरे देश में बहस छिड़ गई है। ऐसे में इस मुद्दे पर मुस्लिम महिलाओं के लिए आवाज उठाने वाली भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की फाउंडर जकिया सोमन ने टाइम्स नाउ नवभारत डिजिटल से बात की है। जाकिया का तीन तलाक और हाजी अली मजार में महिलाओं के प्रवेश मामले में मुस्लिम महिलाओं को कानूनी हक दिलाने में अहम योगदान है। उनका कहना है कि हिजाब पितृसत्ता की देन है और मौजूदा धर्म की राजनीति उसे बढ़ावा दे रही है। जिसे खत्म होना चाहिए। पेश है उनसे बातचीत के प्रमुख अंश
सवाल-हिजाब के मुद्दे को आप किस तरह से देख रही हैं ?
अगर संक्षेप में कहूं तो हिजाबी लड़कियों के साथ भेदभाव बंद होना चाहिए और उनका सशक्तीकरण होना चाहिए। जिससे कि वह मजहब से जुड़ी पितृसत्तात्मक सोच के सामने खड़ी हो सके,और पढ़ लिख के आगे बढ़े। क्योंकि अभी जो वह कर रही है वह पितृसत्तात्मक सोच के दबाव में ऐसा कर रही हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि हिजाब की इस्लाम में मूलभूत रुप से कोई जगह नहीं है।
सवाल-आपका कहना है कि इस्लाम में लड़कियों को हिजाब पहनने के लिए नहीं कहा गया है?
दुनिया के कई सारे इस्लामिक स्कॉलर ने बहुत गहराई से इस मामले पर अध्ययन किया है। उनका कहना है कि इस्लाम की जो बुनियादी शिक्षाएं हैं, वह परदा या बुर्का का हिस्सा नही है। मोरक्को की प्रमुख स्कॉलर फातिमा मरनीसी ने बहुत गहराई से अध्ययन करके बताया है कि इस्लाम में औरतों को पूरी तरह ढकने की कोई प्रथा नही है। उनके अनुसार कुरान में अरबी भाषा में सितर शब्द का जिक्र है। उसके अलग-अलग मायने हैं। ज्यादातर संदर्भ में सितर का इस्तेमाल मर्दों के लिए किया गया है। क्योंकि उस वक्त पुरूषवादी समाज था, इसलिए मर्दों का ज्यादा जिक्र है।
जैसे कि एक जगह बादशाह और दरबारियों के बीच एक सितर होना चाहिए। इसका जिक्र है। इसके अलावा पैगंबर साहेब की पत्नियों के संदर्भ में भी सितर का जिक्र किया गया है। लेकिन पैगंबर साहेब के जाने के बाद जो सत्ता का संघर्ष हुआ, उसमें यह कह दिया गया कि इस्लाम में कहा गया है कि औरतों को ढककर रहना है। परदे में रहना है, यानी वह एक तरह से पितृसत्ता का प्रतीक बन गया।
जबकि कुरान में मर्द और औरत दोनों के लिए कहा गया कि वह शोभा और गरिमा देने वाले वाले कपड़ों को पहने। जैसे मर्द बटन खोल छाती दिखाते घूमते हैं, वह भी गलत है। इस्लाम में पुरूष और औरत दोनों के लिए यह कहा गया है कि वह एक-दूसरे को गलत नजर से नहीं देखे। लेकिन बाद में पूरे मामले को महिलाओं के संदर्भ में संकीर्ण तरीके से देखा गया। जहां तक हिजाब की बात है तो यह सब 10-20 साल पहले हमारे समाज में ज्यादा प्रचलित हुआ है।
सवाल- आपके अनुसार हिजाब क्या भारतीय समाज में 10-20 साल पहले आया है ?
निश्चित तौर पर इतना ज्यादा फैलाव, यह सब पिछले 10-20 साल की देन है। हमारी नानी, दादी साड़ियां पहनती थीं या सलवार-समीज पहनती थी और ऊपर से फिर चौड़ा दुपट्टा लगाती थी। लेकिन ऐसा नहीं था कि मेरे बाल की एक लट भी नहीं दिखे। ऐसी कोई सोच उस जमाने में नहीं थी। आज की तारीख में जो दिख रहा है ऐसा चलन बिल्कुल नहीं था। पिछले 10-20 साल में हमारे समाज का अरबीकरण हुआ है। इसके अलावा 9/11 हमले के बाद पूरी दुनिया में इस्लाम का दानवीकरण भी हुआ। जिसे इस्लामोफोबिया कहते हैं। उसकी वजह से ऐसी चीजें सामने आई।
सवाल- भारत में यह मुद्दा अचानक क्यों सिर उठाने लगा है?
देखिए हमें यह समझना होगा कि भारत में इस समय धर्म की राजनीति चल रही है। एक प्रदेश के मुख्यमंत्री भगवा पहनकर पिछले 5 साल से शासन कर रहे हैं, तो संसद में कई राजनेता भगवा वस्त्र पहनकर बैठे दिखते हैं। ऐसे में भेदभाव की बात आती है। ऐसी स्थिति में आप एक हिजाबी लड़कियों को क्यों टारगेट कर रहे हैं ? हम देख रहे हैं, उसकी साफ तौर पर दो वजहें ये हैं। एक तो पितृसत्तात्मक समाज और दूसरी धर्म की राजनीति , यही बड़ी वजह बन गई है।
सवाल- हिजाब के समर्थन में नोबेल पुरस्कार विजेता मलाला युसूफजई के बयान को कैसे देखती हैं ?
देखिए मलाला का बयान अच्छे नजरिए से आया है। वह एक ऐसी प्रतीक हैं, जो किसी भी तरह के भेदभाव को जायज नहीं ठहराएगी।
सवाल- लेकिन कर्नाटक के मामले में तो हिजाब का मुद्दा तो स्कूल के यूनीफॉर्म को लेकर है। ऐसा नहीं कहा जा रहा है कि स्कूल के बाहर कोई हिजाब नहीं पहन सकता है ?
बिल्कुल मैं इस बात को मानती हूं कि शैक्षणिक संस्थानों के पास संवैधानिक अधिकार है कि वह तय कर सके कि स्कूल की यूनीफॉर्म क्या होना चाहिए। लेकिन नियम-कानून संविधान के स्तर पर खरे उतरने चाहिए। और दूसरी बात मैं यह कहती हूं कि शैक्षणिक संस्थानों के पास उदार सोच होनी चाहिए।
मेरे पास भी शुरू में कई ऐसे सामाजिक कार्यकर्ताएं आईं जो बुर्का पहनती थी, लेकिन अब उनमें से शायद ही कोई हो जो बुर्का या हिजाब पहनती हैं। ऐसे में लड़कियों को केवल हिजाब के नाम शिक्षा के मौलिक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। मेरा मानना है कि उन्हें शिक्षित कर खुद फैसला लेने के लिए सक्षम बनाना चाहिए। जिससे वह पितृसत्तात्मक सोच से बाहर निकल सकें।
सवाल- जमीयत उलेमा ए हिंद ने नारे लगाने वाली लड़की को 5 लाख रुपये इनाम देने की बात कही है, इसे कैसे देखती है ?
देखिए इसकी मुझे जानकारी नहीं है। वह लड़की खुद कह रही है कि ऐसे ईनाम की उसे जानकारी नहीं है। लेकिन अगर ऐसा है तो मैं इसे सहीं नहीं मानती हूं। यह तो पूरी तरह से गलत है। यह तो केवल ध्रुवीकरण और मौके का फायदा उठाकर तूल देने की कोशिश है, जो पूरी तरह से गलत है।
सवाल- सरकार की भूमिका को कैसे देखती है ?
देखिए मैं किसी भी धर्म की कट्टरता के खिलाफ हूं, हमें एक नागरिक के रूप में उसके खिलाफ आवाज उठाना चाहिए। और सरकार को भी संवैधानिक तरीके से मामले को हल करना चाहिए। और धर्म की राजनीति को बंद होनी चाहिए। इससे समाज और देश को बहुत नुकसान पहुंच रहा है।
बहुत हुई विवाद की बातें, पर क्या आप जानते हैं आखिर हिजाब, बुर्का, नकाब, चादर में है क्या फर्क
हिजाब के कारण इस मॉडल को ब्यूटी कॉन्टेस्ट से कर दिया गया था बाहर, बिकनी पहनने से किया था इनकार