- देश को आजाद हुए अभी चंद महीने हुए थे कि 1947 में पाकिस्तान ने कश्मीर में चढ़ाई कर दी
- तब स्वतंत्र रियासत जम्मू कश्मीर के राजा हरि सिंह ने भारत से मदद मांगी और विलय को मंजूर किया
- उस घटना के दशकों बाद प्रकाशित पुस्तक में कश्मीर में पाकिस्तानी दखल को लेकर कई राज खोले गए हैं
इस्लामाबाद : देश को आजादी मिले अभी चंद महीने ही हुए थे कि कबायलियों के भेष में बड़ी संख्या में पाकिस्तानी सैनिकों ने कश्मीर में चढ़ाई कर दी। इतिहास की किताबों में हम सब यह लंबे अरसे से पढ़ते आ रहे हैं और यह भी किस तरह भारत ने तब तत्काली जम्मू कश्मीर रियासत के राजा हरि सिंह की मदद करते हुए जम्मू में सेना भेजी और फिर देखते ही देखते पासा पलट गया और कबायलियों के भेष में आए पाकिस्तानियों को उल्टे पांव भागना पड़ा। अब इसी की तस्दीक पाकिस्तानी मेजर (सेवानिवृत्त) की एक किताब से हुई है, जो कश्मीर में पाकिस्तानी ऑपरेशन के दशकों बाद प्रकाशित हुई है।
यह पुस्तक मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) अकबर खान ने लिखी है, जो जम्मू एवं कश्मीर में पाकिस्तान के 'ऑपरेशन गुलमर्ग' के दशकों बाद प्रकाशित हुई है। इसमें उन्होंने न केवल घाटी में तब हुए संघर्ष में पाकिस्तान की भूमिका स्वीकार की है, बल्कि इसका ब्यौरा भी दिया है कि पाकिस्तान की सियासी हुकूमत और व सैन्य प्रतिष्ठान किस कदर इसमें संलिप्त थे। इसमें उन्होंने 26 अक्टूबर, 1947 की घटना का जिक्र करते हुए लिखा है, 'पाकिस्तानी बलों ने बारामूला पर कब्जा कर लिया था और अब 14,000 में से महज 3,000 सैनिक ही जीवित बचे थे। सैनिक श्रीनगर से महज 35 मील दूर थे, जब महाराजा (हरि सिंह) ने दिल्ली से मदद मांगी और बदले में विलय के कागजात भेज दिए।'
लाहौर, पिंडी में रची गई थी साजिश
जम्मू कश्मीर की राजधानी श्रीनगर पर कब्जा करने के पाकिस्तान के उस अभियान के बारे में विस्तृत जानकारी देते हुए मेजर जनरल (से.) खान ने यह भी बताया है कि इसकी साजिश लाहौर और पिंडी में रची गई थी। बकौल खान, तब पाकिस्तान में सत्तारूढ़ मुस्लिम लीग के नेता मियां इफ्तिखारुद्दीन ने उन्हें इसके लिए बुलाया था और कश्मीर पर कब्जे की रणनीति बनाने के लिए कहा था। उन्हें सितंबर, 1947 की शुरुआत में ऐसा करने के लिए कहा गया था, जिसके कुछ ही दिनों बाद कश्मीर में पाकिस्तान ने ऑपरेशन को अंजाम दिया।
खान के मुताबिक, उन्होंने 'कश्मीर में सशस्त्र विद्रोह' शीर्षक से अपनी योजना लिखी। चूंकि इसमें पाकिस्तान को खुलकर सामने आने की जरूरत नहीं थी, इसलिए प्रस्ताव रखा गया कि कश्मीरियों को सशक्त करने पर जोर दिया जाना चाहिए। साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि कश्मीर की मदद के लिए भारत से सशस्त्र नागरिक समूह या सेना न पहुंचे। देश की आजादी के ठीक बाद कश्मीर में हुए उथल-पुथल में पाकिस्तान के शीर्ष नेतृत्व की संलिप्तता का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के साथ एक बैठक के लिए उन्हें लाहौर बुलाया गया था।
पाकिस्तानी हुक्मरानों की संलिप्तता
अपनी किताब में उन्होंने लिखा है, '22 अक्टूबर को पाकिस्तानी बलों के सीमा पार करने के साथ ही ऑपरेशन शुरू हुआ। 24 अक्टूबर को मुजफ्फराबाद और डोमल पर आक्रमण किया गया, जिसके बाद डोगरा सैनिक पीछे हटने लगे। अगले दिन सैनिकों ने श्रीनगर रोड़ की तरफ बढ़ना शुरू किया और उड़ी में डोगरा सैनिकों पर भारी पड़े.... 27 अक्टूबर को भारत ने दखल दिया और सैनिक कश्मीर भेजे।' उसी दिन शाम को कश्मीर के भारत में विलय और भारत के सैन्य दखल के ताजा हालात के बारे में जानकारी के लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने लाहौर में एक बैठक बुलाई, जिसमें कई शीर्ष राजनीतिक व सैन्य अधिकारी शामिल हुए। उस बैठक में अकबर खान भी मौजूद थे, जिन्होंने तब प्रस्ताव दिया था कि जम्मू में सड़क मार्ग को बाधित कर दिया जाए, क्योंकि भारतीय सेना इसी से होते हुए श्रीनगर और कश्मीर के अन्य हिस्सों में पहुंचेगी। इसके लिए उन्होंने कबायलियों का इस्तेमाल करने की सलाह दी थी।
इस पुस्तक में उन्होंने यह भी कहा है कि पाकिस्तान की सेना ने तब कश्मीर में आकस्मिक आक्रमण के लिए कबायलियों के साथ मिलकर काम किया था। बाद में जब उन्हें प्रधानमंत्री का सैन्य सलाहकार नियुक्त किया गया तो 28 अक्टूबर, 1947 को वह ये सुनिश्चित करने के लिए पिंडी गए थे कि कबायलियों को हथियार समय पर मिले।